________________
स्याद्वाद
४९५ यह त्रयात्मकता वस्तुकी जान हैं। इसीको स्वामी समस्तभद्र तथा भट्ट कुमारिलने लौकिक दृष्टान्तसे इस प्रकार समझाया है कि जब सोनेके कलशको मिटाकर मुकुट बनाया गया, तो कलशार्थीको शोक हुआ, मुकुटाभिलाषीको हर्ष और सुवर्णार्थीको माध्यस्थ्यभाव रहा। कलशार्थीको शौक कलशके नाशके कारण हुआ, मुकुटाभिलापीको हर्प मुकुटके उत्पादके कारण तथा सुवर्णार्थीको तटस्थता दोनों दशाओंमें सुवर्णके बने रहनेके कारण हुई है । अतः वस्तु उत्पादादित्रयात्मक है। जब दूधको जमाकर दही बनाया गया, तो जिस व्यक्तिको दूध खानेका व्रत है वह दहीको नहीं खायगा, पर जिसे दही खानेका व्रत है वह दहीको तो खा लेगा, पर दूधको नहीं खायगा, और जिसे गोरसके त्यागका व्रत है वह न दूध खायगा और न दही; क्योंकि दोनों ही अवस्थाओं में गोरस है ही। इससे ज्ञात होता है कि गोरसकी ही दूध और दही दोनों क्रमिक पर्यायें थीं।
पातञ्जल महाभाष्यमें भी पदार्थके त्रयात्मकत्वका समर्थन शब्दार्थ १. “घटमौलिमुवर्णाथां नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥" -आप्तमी० श्लो० ५९ । “वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा।। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥ हेमाथिनतु माध्यरथ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । रिथत्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥"
___-मी० श्लो० पृ० ६१९। २. “पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः।
अगोरसवतो नोमे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकन् ॥" -आप्तमी० श्लो० ६९ ३. "द्रव्यं हि नित्यमाकृतिरनित्या । सुवर्ण कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डों भवति, पिण्डाकृतिमुपसृध रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते, पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः पुनरपरया आकृत्या युक्तः खदिराङ्गारसदृशे कुण्डले भवतः। आकृतिरन्या अन्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते।"
-पात० महामा० १११११। योगमा० ४।१३ ।