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१०. स्याद्वाद और सप्तभङ्गी
स्याद्वाद : स्याद्वादकी उद्भूति:
जैन दर्शनने सामान्यरूपसे यावत् सत्को परिणामी - नित्य माना है । प्रत्येक सत् अनन्तधर्मात्मक है । उसका पूर्णरूप वचनोंके अगोचर है । कोई ऐसा शब्द नहीं है जो वस्तुके पूरे रूपको स्पर्श कर सकता हो । 'मत्' शब्द भी वस्तुके एक 'अस्तित्व' धर्मको कहता है, शेष नास्तित्व आदि धर्मो को नहीं । वस्तुस्थिति ऐसी होने पर भी उसको समझने- समझानेका प्रयत्न प्रत्येक मानवने किया ही है और आगे भी उसे करना ही होगा । तब उस विराट्को जानने और दूसरोंको समझाने में बड़ी सावधानी रखने की आवश्यकता है । हमारे जाननेका तरीका ऐसा हो जिससे हम उस अनन्तधर्मा अखण्ड वस्तुके अधिक-से-अधिक समीप पहुँच सकें, उसका विपर्यास तो हरगिज न करें। दूसरोंको समझाने की— शब्द प्रयोगकी प्रणाली भी ऐसी ही हो, जो उम तत्त्वका सही-सही प्रतिनिधित्व कर सके, उसके स्वरूपकी ओर संकेत कर सके, भ्रम तो उत्पन्न करे ही नहीं । इन दोनों आवश्यकताओंने अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वादको जन्म दिया है ।
अनेकान्तदृष्टि या नयदृष्टि विराट् वस्तुको जाननेका वह प्रकार है, जिसमें विवक्षित धर्मको जानकर भी अन्य धर्मोका निषेध नहीं किया जाता, उन्हें गौण या अविवक्षित कर दिया जाता है और इस तरह हर हालत में पूरी वस्तुका मुख्य- गौणभावसे स्पर्श हो जाता है । उसका कोई भी अंश कभी नहीं छूट पाता । जिस समय जो धर्म विवक्षित होता है वह उस समय मुख्य या अर्पित बन जाता है और शेष धर्म गौण या अर्नार्पित रह जाते हैं । इस तरह जब मनुष्यकी दृष्टि अनेकान्ततत्त्वका