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________________ स्याद्वाद ४८१ स्पर्श करनेवाली बन जाती है तब उसके समझानेका ढंग भी निराला हो हो जाता है । वह सोचता है कि हमें उस शैलीसे वचनप्रयोग करना चाहिये, जिससे वस्तुतत्त्वका यथार्थ प्रतिपादन हो । इस शैली या भाषाके निर्दोष प्रकारको आवश्यकताने 'स्याद्वाद' का आविष्कार किया है। 'स्याद्वाद' भाषाकी वह निर्दोष प्रणाली है, जो वस्तुतत्त्वका सम्यक् प्रतिपादन करती है । इसमें लगा हुआ 'स्यात्' शब्द प्रत्येक वाक्यके सापेक्ष होनेकी सूचना देता है । 'स्यात् अस्ति' वाक्यमें 'अस्ति' पद वस्तुके अस्तित्व धर्मका मुख्यरूपसे प्रतिपादन करता है तो 'स्यात्' शब्द उसमें रहने वाले नास्तित्व आदि शेष अनन्तधर्मोका मद्भाव बताता है कि 'वस्तु अस्ति मात्र ही नहीं है, उसमें गौणरूपसे नास्तित्व आदि धर्म भी विद्यमान है।' मनुष्य अहंकारका पुतला है। अहंकारको सहस्र नहीं, असंख्य जिह्वाएँ हैं। यह विषधर थोड़ी भी असावधानी होनेपर डस लेता है । अतः जिस प्रकार दृष्टि में अहंकारका विप न आने देनेके लिए 'अनेकान्तदृष्टि' संजीवनीका रहना आवश्यक है उसी तरह भाषामें अवधारण या अहंकारका विष निर्मूल करनेके लिये 'स्याद्वाद' अमृत अपेक्षणीय होता है । अनेकान्तवाद स्याद्वादका इस अर्थमें पर्यायवाची है कि ऐसा वाद-कथन अनेकान्तवाद कहलाता है जिसमें वस्तु के अनन्त धर्मात्मक स्वरूपका प्रतिपादन मुख्य-गौणभावसे होता है। यद्यपि ये दोनों पर्यायवाची है फिर भी 'स्याद्वाद' ही निर्दष्ट भापाशैलीका प्रतीक बन गया है। अनेकान्तदृष्टि तो ज्ञानरूप है, अतः वचनरूप 'स्याहाद' से उसका भेद स्पष्ट है। इस अनेकान न्तवादके बिना लोकव्यवहार नहीं चल सकता। पग-पगपर इसके बिना विसंवादकी संभावना है। अतः इस त्रिभुवनके एक गुरु अनेकान्तवादको नमस्कार करते हुए आचार्य सिद्धसेनने ठीक ही लिखा है "जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वथा ण णिव्वइए। तस्य भुवणैकगुरुणो णमोऽणेगंतवायस्स ॥" -सन्मति० २१६८।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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