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जैनदर्शन तथा किसी भी प्रकारके भेदको ग्रहण करनेवाले नयको पर्यायार्थिक और व्यवहारनय कहते है। इनके मतसे 'निश्चयनयके शुद्ध और अशुद्ध भेद करना ही गलत है। ये वस्तुके सद्भूत भेदको व्यवहारनयका ही विषय मानते है । अखण्ड वस्तुमे किसी भी प्रकारका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिकी दृष्टिसे होनेवाला भेद पर्यायाथिक या व्यवहारनयका विषय होता है । इनको दृष्टिमें समयसारगत परनिमित्तक-व्यवहार ही नहीं; किन्तु स्वगत भेद भी व्यवहारनयकी सीमामे ही होता है। व्यवहारनयके दो भेद है-एक सद्भुत व्यवहारनय और दूसरा असद्भूत व्यवहारनय । वस्तुमे अपने गुणोंकी दृष्टिमे भेद करना सद्भूत व्यवहार है । अन्य द्रव्यके गुणोंकी बलपूर्वक अन्यत्र योजना करना असद्भुत व्यवहार है। जैसे वर्णादिवाले मूर्त पुद्गलकर्मद्रव्यके संयोगसे होनेवाले क्रोधादि मूर्तभावोंको जीवके कहना। यहाँ ब्रोधादिमे जो पुद्गलद्रव्यके मूर्तत्वका आरोप किया गया है-यह अमद्भूत है और गुण-गुणीका जो भेद विविक्षत है वह व्यवहार है । सद्भूत और असद्भूत व्यवहार दोनों ही उपचरित और अनुपचरितके भेदसे दो-दो प्रकारके होते है । 'ज्ञान जोवका है' यह अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय है तथा 'अर्थविकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण है
और वही जीवका गुण है' यह उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है। इसमें ज्ञानमे अर्थविकल्पात्मकता उपचरित है और गुण-गुणीका भेद व्यवहार है।
अनगारधर्मामृत ( अध्याय १ श्लो० १०४." ) आदिमें जो 'केवलज्ञान जीवका है' यह अनुपचरित सद्भूत व्यवहार तथा ‘मतिज्ञान जीवका है' यह उपचरित सद्भूत व्यवहारका उदाहरण दिया है; उसमें यह दृष्टि है कि शुद्ध गुणका कथन अनुपचरित तथा अशुद्ध गुणका कथन उपचरित है । अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय 'अबुद्धिपूर्वक होनेवाले क्रोधादि भावोंको जीवका कहता है और उपचरित सद्भूत व्यवहारनय
१. पंचाध्यायो श६५९-६१।
२. पंचाध्यायी ११५२५ से।