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नय- विचार
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का सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि रूपसे विभाग भी उन्हे इष्ट नहीं है । वे एक अनिर्वचनीय अखण्ड चित्को ही आत्मद्रव्य के स्थान मे रखते है । आचार्यने इस लक्षणभूत 'चित्' के सिवाय जितने भी वर्णादि और रागादि लक्षणाभास है, उनका परभाव कहकर निषेध कर दिया है । इसी दृष्टिसे निश्चयनयको परमार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थ भी कहा है । अभूतार्थका यह अर्थ नहीं है कि आत्मामे रागादि है ही नही, किन्तु जिस त्रिकालव्यापी द्रव्यरूप चित्को हम लक्षण वना रहे है उसमे इन्हें शामिल नहीं किया जा सकता ।
वर्णादि और रागादिको व्यवहारनयका विषय कहकर एक ही झोंकमे निषेध कर देने से यह भ्रम सहजम ही हो सकता है कि 'जिस प्रकार रूप, रस, गन्ध आदि पुद्गलके धर्म है उसी तरह रागादि भी पुद्गलके ही धर्म होंगे, और पुद्गलनिमित्तक होनेसे इन्हें पुद्गलकी पर्याय कहा भी है ।' इस भ्रमके निवारणके लिये निश्चयनयके दो भेद भी शास्त्रोंमे देखे जाते है - एक शुद्ध निश्चयनय और दूसरा अशुद्ध निश्चयनय । शुद्ध निश्चयको दृष्टिमे 'शुद्ध चित्' ही जीवका स्वरूप है । अशुद्ध निश्चयनय आत्माके अशुद्ध रागादिभावोको भी जीवके ही कहता है, पुद्गलके नहीं । व्यवहारनय सद्भूत और असद्भूत दोनोमे उपचरित और अनुपचरित अनेक प्रकारसे प्रवृत्ति करता है । समयसारके टीकाकरोने अपनी टीकाओंमें वर्णादि और रागादिको व्यवहार और अशुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिसे ही विचारनेका संकेत किया है।
पंचाध्यायीका नय - विभाग :
पंचाध्यायीकार अभेदग्राहीको द्रव्यार्थिक और निश्चयनय कहते हैं
१. देखो, - द्रव्यसंग्रह गा० ४ ।
२. 'अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्यकर्मापेक्षया आभ्यन्तररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयनयापेक्षया व्यवहार एव इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यम् । - समयसार तात्पर्यवृत्ति गा० ७३ ।