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नय-विचार
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सकता और न उस संयोगसे सिद्धोंमें रागादि ही उत्पन्न होते हैं । अतः यह स्पष्ट है कि शुद्ध आत्मा परसंयोगरूप निमित्तके रहने पर भी रागादिमें उपादान नहीं होता और न पर निमित्त उसमें बलात् रागादि उत्पन्न ही कर सकते हैं। हमें सोचना ऊपरकी तरफसे है कि जो हमारा वास्तविक स्वरूप बन सकता है, जो हम हो सकते हैं, वह स्वरूप क्या रागादिमें उपादान होता है ? नोचेकी ओरसे नहीं सोचना है; क्योंकि अनादिकालसे तो अशुद्ध आत्मा रागादिमें उपादान बन हो रहा है और उसमें रागादिको परम्परा वराबर चालू है ।
अतः निश्यचनयको यह कहनेके स्थानमें कि 'मैं शुद्ध हूँ, अबद्ध हूँ, अस्पृष्ट हूँ'; यह कहना चाहिये कि 'मैं गुद्ध , अबद्ध और अस्पृष्ट हो सकता हूँ ।' क्योंकि आज तक तो उसने आत्माकी इस शुद्ध आदर्श दशाका अनुभव किया ही नहीं है। बल्कि अनादिकालसे रागादिपंकमें ही वह लिप्त रहा है। यह निश्चित तो इस आधारपर किया जा रहा है कि जब दो स्वतन्त्र द्रव्य है, तब उनका संयोग भले ही अनादि हो, पर वह टूट सकता है, और वह टूटेगा तो अपने परमार्थस्वरूपकी प्राप्तिकी ओर लक्ष्य करनेसे । इस शक्तिका निश्चय भी द्रव्यका स्वतन्त्र अस्तित्व मानकर हो तो किया जा सकता है। अनादिकी अशुद्ध आत्मामें शुद्ध होनेकी शक्ति है, वह शुद्ध हो सकता है। यह शक्यताभविष्यतका ही तो विचार है। हमारा भूत और वर्तमान अशुद्ध है, फिर भी निश्ययनय हमारे उज्ज्वल भविष्यकी ओर, कल्पनासे नहीं, वस्तुके आधारसे ध्यान दिलाता है। उसी तत्त्वको आचार्य कुन्दकुन्द' बड़ी सुन्दरतासे कहते हैं कि 'काम, भोग और बन्धकी कथा सभीको श्रुत,
१. सुदपरिचिदाणभूदा सबम्सवि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुत्रलंभो णवरि ण मुलहो विभत्तम्स ।।'
-समयसार गा०४ ।