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जैनदर्शन प्रयत्न ही घटके अन्तिम उत्पादक होते तो उनमे रेत या पत्थर में भी घड़ा उत्पन्न हो जाना चाहिये था। आखिर वह मिट्टीकी उपादानयोग्यतापर ही निर्भर करता है, वही योग्यता घटाकार बन जाती है । यह ठीक है कि कुम्हारके ज्ञान, इच्छा, और प्रयत्नके निमित्त बने बिना मिट्टीकी योग्यता विकसित नहीं हो सकती थी, पर इतने निमित्तमात्रसे हम उपादानको निजयोग्यताको विभूतिकी उपेक्षा नहीं कर सकते । इस निमित्तका अहंकार तो देखिए कि जिसमें रंचमात्र भी इसका अंश नहीं जाता, अर्थात् न तो कुम्हारका ज्ञान मिट्टी में धंसता है, न इच्छा और न प्रयत्न, फिर भी वह 'कुम्भकार' कहलाता है ! कुम्भके रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि मिट्टीसे ही उत्पन्न होते है उसका एक भी गुण कुम्हारने उपजाया नहीं है। कुम्हारका एक भी गुण मिट्टी में पहुँचा नहीं है, फिर भी वह सर्वाधिकारी बनकर 'कुम्भकार' होनेका दुरभिमान करता है !
राग, द्वेष आदिको स्थिति यद्यपि विभिन्न प्रकारको है; क्योंकि इसमे आत्मा स्वयं राग और द्वेष आदि पर्यायों रूपसे परिणत होता है, फिर भी यहाँ वे विश्लेषण करते है कि बताओ तो सही-क्या शुद्ध आत्मा इनमे उपादान बनता है ? यदि सिद्ध और शुद्ध आत्मा रागादिमे उपादान बनने लगे; तो मुक्तिका क्या स्वरूप रह जाता है ? अतः इनमें उपादान रागादिपर्यायसे विशिष्ट आत्मा ही बनता है, दूसरे शब्दोंमे रागादिसे ही रागादि होते है। निश्चयनय जीव और कर्मके अनादि बन्धनसे इनकार नहीं करता । पर उस वंधनका विश्लेषण करता है कि जब दो स्वतंत्र द्रव्य हैं तो इनका संयोग ही तो हो सकता है, तादात्म्य नहीं । केवल संयोग तो अनेक द्रव्योंसे इस आत्माका सदा ही रहनेवाला है, केवल वह हानिकारक नहीं होता । धर्म, अधर्म, आकाश और काल तथा अन्य अनेक आत्माओंसे इसका सम्बन्ध बराबर मोजूद है, पर उससे इसके स्वरूपमें कोई विकार नहीं होता। सिद्धशिलापर विद्यमान सिद्धात्माओंके साथ वहाँ के पुद्गल परमाणुओंका संयोग है ही, पर इतने मात्रसे उनमें बंधन नहीं कहा जा