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________________ नय-विचार ४६९ किन्तु परनिमित्तक विभूति या विकारोंसे उसी तरह अलिप्त रहना है, उनसे ऊपर उठना है, जिस तरह कि वह स्त्री, पुत्रादि परचेतन तथा धनधान्यादि पर अचेतन पदार्थोसे नाता तोड़कर स्वावलम्बी मार्ग पकड़ता है । यद्यपि यह साधकको भावना मात्र है, पर इसे आ० कुन्दकुन्दने दार्शनिक आधार पकड़ाया है। वे उस लोकव्यवहारको हेय मानते है, जिसमें अंशतः भी परावलम्बन हो। किन्तु यह ध्यानमें रखनेकी बात है कि वे सत्यस्थितिका अलाप नहीं करना चाहते। वे लिखते हैं कि 'जीवके परिणामोंको निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य कर्मपर्यायको प्राप्त होते हैं और उन कर्मोके निमित्तसे जीवमें रागादि परिणाम होते हैं, यद्यपि दोनों अपनेअपने परिणामोंमें उपादान होते हैं, पर ये परिणमन परस्परहेतुक-अन्योन्यनिमित्तक हैं।' उन्होंने "अण्णोण्णणिमित्तेण" पदसे इसी भावका समर्थन किया है । यानी कार्य उपादान और निमित्त दोनों सामग्रीसे होता है । इस तथ्यका वे अपलाप नहीं करके उसका विवेचन करते हैं और जगतके उस अहंकारमूलक नैमित्तक कर्तृत्वका खरा विश्लेषण करके कहते हैं कि बताओ 'कुम्हारने घड़ा बनाया' इसमें कुम्हारने आखिर क्या किया? यह सही है कि कुम्हारको घड़ा बनानेकी इच्छा हुई, उसने उपयोग लगाया और योग–अर्थात् हाथ-पैर हिलाये, किन्तु 'घट' पर्याय तो आखिर मिट्टी में ही उत्पन्न हुई। यदि कुम्हारकी इच्छा, ज्ञान और १. 'जीववरिणामहेद् कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवावि परिणमद ॥८॥ ण वि कुबड कम्मगुणे जीवो कम्मं नहब जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोण्हं पि ॥८१॥' -समयसार । २. 'जीवो ण करेदि घडं गंव पडं णेव सेसगे दव्वे । जोगुवओगा उप्पादगा य तेर्सि हवदि कत्ता ॥१००॥'-समयसार ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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