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जैनदर्शन
परिचित और अनुभूत है, पर विभक्त - शुद्ध आत्माके एकत्वकी उपलब्धि सुलभ नहीं है ।' कारण यह है कि शुद्ध आत्माका स्वरूप संसारी जीवोंको केवल श्रुतपूर्व है अर्थात् उसके सुननेमे ही कदाचित् आया हो, पर न तो उसने कभी इसका परिचय पाया है और न कभी इसने उसका अनुभव ही किया है । आ० कुन्दकुन्द ( समयसार गा० ५ ) अपने आत्मविश्वाससे भरोसा दिलाते है कि 'मै अपनी समस्त सामर्थ्य और बुद्धिका विभव लगाकर उसे दिखाता हूँ ।' फिर भी वे थोड़ी कचाईका अनुभव करके यह भी कह देते हैं कि 'यदि चूक जाऊँ, तो छल नहीं मानना ।'
द्रव्यका शुद्ध लक्षण :
उनका एक ही दृष्टिकोण है कि द्रव्यका स्वरूप वही हो सकता है जो द्रव्यकी प्रत्येक पर्याय में व्याप्त होता है । यद्यपि द्रव्य किसी-न-किसी पर्यायको प्राप्त होता है और होगा, पर एक पर्याय दूसरी पर्याय में तो नहीं पाई जा सकती और इसलिये द्रव्यको कोई भी पर्याय द्रव्यसे अभिन्न होकर भी द्रव्यका शुद्धरूप नहीं कही जा सकती । अब आप आत्माके स्वरूपपर क्रमशः विचार कीजिए । वर्ण, रस आदि तो स्पष्ट पुद्गलके गुण है, वे पुद्गलकी ही पर्यायें है और उनमें पुद्गल ही उपादान होता है, अतः वे आत्माके स्वरूप नहीं हो सकते, यह बात निर्विवाद है । रागादि समस्त विकारोंमे यद्यपि अपने परिणामीस्वभाव के कारण आत्मा ही उपादान होता है, उसकी विरागता ही बिगड़कर राग बनती है, उसीका सम्यक्त्व बिगड़कर मिथ्यात्वरूप हो जाता है, पर वे विरागता और सम्यक्त्व भी आत्मा के त्रिकालानुयायी शुद्ध रूप नहीं हो सकते; क्योंकि वे निगोद आदि अवस्था में तथा सिद्ध अवस्था में नहीं पाये जाते । सम्यग्दर्शन आदि गुणस्थान भी उन-उन पर्यायोंके नाम है जो कि त्रिकालानुयायी नहीं है, उनकी सत्ता मिथ्यात्व आदि अवस्थाओं में तथा सिद्ध अवस्था में नहीं रहती । इनमें परपदार्थ निमित्त पड़ता है । किसी-न-किसी पर -