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जैनदर्शन
वह अल्पविषयक हो ही जाता है । व्यवहारनय द्रव्यग्राही और त्रिकालवर्ती सद्विशेषको विषय करता है, अत: वर्तमानकालीन पर्यायको ग्रहण करनेवाला ऋजुसूत्र उसमे सूक्ष्म हो ही जाता है। शब्दभेदको चिन्ता नहीं करनेवाले ऋजुमूत्रनयसे वर्तमानकालीन एकपर्यायमें भी शब्दभेदसे अर्थभेदको चिन्ता करनेवाला शब्दनय सूक्ष्म है । पर्यायवाची शब्दोंमें भेद होने पर भी अर्थभेद न माननेवाले शब्दनयसे पर्यायवाची शब्दों द्वारा पदार्थमें शक्तिभेद कल्पना करनेवाला समभिरूढनय सूक्ष्म है। शब्दप्रयोगमें क्रियाको चिन्ता नहीं करनेवाले समभिरूढसे क्रियाकालमे ही उस शब्दका प्रयोग माननेवाला एवम्भूत मूक्ष्मतम और अल्पविषयक है । अर्थनय, शब्दनय :
इन मात नयोंमे ऋजुमूत्र पर्यन्त चार नय अर्थग्राही होनेसे अर्थनय है। यद्यपि नैगमनय मंकल्पग्राही होनेसे अर्थकी सीमासे बाहिर हो जाता था, पर नैगमका विषय भेद और अभेद दोनोंको ही मानकर उसे अर्थग्राही कहा गया है । शब्द आदि तीन नय पदविद्या अर्थात् व्याकरणशास्त्रशब्दशास्त्रकी सीमा और भूमिकाका वर्णन करते है, अतः ये शब्दनय है। द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकविभाग : __ नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्याथिक नय है और ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक है। प्रथमके तीन नयोंकी द्रव्यपर दृष्टि रहती है, जब कि शेष चार नयोंका वर्तमानकालीन पर्यायपर ही विचार चालू होता है । यद्यपि व्यवहारनयमें भेद प्रधान है और भेदको भी कहीं-कहीं पर्याय कहा है, परन्तु व्यवहारनय एकद्रव्यगत ऊर्ध्वतासामान्यमें कालिक
१. 'चत्वारोऽर्थाश्रयाः शेषास्त्रयं शब्दतः ।
-सिद्धिवि० । लघी० श्लो० ७२ ।