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नय-विचार
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चाहिये, अन्य समयमें नहीं। समभिरूढनय उस समय क्रिया हो या न हो, पर शक्तिको अपेक्षा अन्य शब्दोंका प्रयोग भी स्वीकार कर लेता है, परन्तु एवम्भूतनय ऐसा नहीं करता। क्रियाक्षणमे ही कारक कहा जाय, अन्य क्षणमे नहीं। पूजा करते समय ही पुजारी कहा जाय, अन्य समयमें नहीं; और पूजा करते समय उमे अन्य शब्दसे भी नहीं कहा जाय । इस तरह समभिरूढनयके द्वारा वर्तमान पर्यायमे शक्तिभेद मानकर जो अनेक पर्यायशब्दोंके प्रयोगकी स्वीकृति थी, वह इसकी दृष्टिम नहीं है। यह तो क्रियाका धनी है। वर्तमानमे शक्तिकी अभिव्यक्ति देखता है । तक्रियाकालमें अन्य गन्दका प्रयोग करना या उस शब्दका प्रयोग नहीं करना एवम्भूताभास है। इस नयको व्यवहारकी कोई चिन्ता नही है । हाँ, कभी-कभी इममे भी व्यवहारकी अनेक गुत्थियाँ सुलझ जाती है। न्यायाधीश जब न्यायकी कुरसीपर बैठता है तभी न्यायाधीश है। अन्यकालमें भी यदि उनके मिरपर न्यायाधीशत्व मवार हो, तो गृहस्थी चलना कठिन हो जाय । अतः व्यवहारको जो सर्वनयमाध्य कहा है, वह ठीक ही कहा है। नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म और अल्पविषयक हैं :
इन नयोंमे' उत्तरोत्तर सूक्ष्मता और अल्पविषयता है। नैगमनय संकल्पग्राही होनेसे सत् और असत् दोनोंको विषय करता है, जब कि संग्रहनय 'सत्' तक ही सीमित है। नैगमनय भेद और अभेद दोनोंको गौण-मुख्यभावसे विषय करता है, जब कि संग्रहनयकी दृष्टि केवल अभेदपर है, अतः नैगमनय महाविषयक और स्थूल है, परंतु संग्रहनय अल्पविषयक और सूक्ष्म है । सन्मात्रग्राही संग्रहनयसे सद्विशेषग्राही व्यवहार अल्पविषयक है । संग्रहके द्वारा संगृहीत अर्थमे व्यवहार भेद करता है, अतः
१. 'एवभेते नयाः पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकलाल्पविषयाः।'
-तत्त्वार्थवा० १॥३६ ।