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जैनदर्शन
पृथ्वी के अनेक नाम - पर्यायवाची शब्द तो प्रस्तुत कर दिये हैं, पर उस पदार्थ में उन पर्यायगब्दोंकी वाच्यशक्ति जुदा-जुदा स्वीकार नहीं की । जिस प्रकार एक अर्थ अनेक शब्दोंका वाच्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार एक शब्द अनेक अर्थांका वाचक भी नहीं हो सकता । एक गोशब्दके ग्यारह अर्थ नहीं हो सकते; उस शब्द में ग्यारह प्रकारकी वाचकशक्ति मानना ही होगी । अन्यथा यदि वह जिस शक्ति पृथिवीका वाचक है उसी शक्ति गायका भी वाचक हो; तो एकशक्तिक शब्दसे वाच्य होनेके कारण पृथिवी और गाय दोनों एक हो जायँगे । अतः शब्दमें वाच्यभेदके हिसाब से अनेक वाचकशक्तियोंकी तरह पदार्थ में भी वाचकभेदकी अपेक्षा अनेक वाच्यशक्तियाँ माननी ही चाहिये । प्रत्येक शब्दके व्युत्पत्तिनिमित्त और प्रवृत्तिनिमित्त जुदे - जुदे होते हैं, उनके अनुसार वाच्यभूत अर्थ में पर्यायभेद या शक्तिभेद मानना ही चाहिये । यदि एकरूप ही पदार्थ हो; तो उसमें विभिन्न क्रियाओंसे निष्पन्न अनेक शब्दोंका प्रयोग ही नहीं हो सकेगा । इस तरह समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दोंकी स्वीकार करता है ।
अपेक्षा भी अर्थभेद
पर्यायवाची शब्दभेद मानकर भी अर्थभेद नहीं मानना समभिरूढनयाभास है । जो मत पदार्थको एकान्तरूप मानकर भी अनेक शब्दोंका प्रयोग करते हैं उनको यह मान्यता तदाभास है ।
एवम्भूत और तदाभास :
एवम्भूतनय', पदार्थ जिस समय जिस क्रियामें परिणत हो उस समय उसी क्रियासे निष्पन्न शब्दको प्रवृत्ति स्वीकार करता है । जिस समय शासन कर रहा हो उसी समय उसे शक्र कहेंगे, इन्दन-क्रियाके समय नहीं । जिस समय घटन-क्रिया हो रही हो, उसी समय उसे घट कहना
१. ‘येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययति इत्येवम्भूतः ।'
- सर्वार्थसिद्धि ११३३ | अकलङ्क ग्रन्थत्रयटि० पृ० १४७ ।