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नय-विचार
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पर्यायोंका अन्तिम भेद नही करता, उसका क्षेत्र अनेकद्रव्यमे भेद करनेका मुख्यरूपसे है। वह एकद्रव्यकी पर्यायोमे भेद करके भी अन्तिम एकक्षणवर्ती पर्याय तक नहीं पहुंच पाता, अतः इसे शुद्ध पर्यायाथिकमे शामिल नहीं किया है । जैसे कि नैगमनय कभी पर्यायको और कभी द्रव्यको विषय करनेके कारण उभयावलम्बी होनेसे द्रव्याथिकमे ही अन्तर्भूत है उसी तरह व्यवहारनय भी भेदप्रधान होकर भी द्रव्यको विपय करता है, अतः वह भी द्रव्यार्थिककी ही सीमामे है । ऋजुसूत्रादि चार नय तो स्पष्ट ही एकममयवर्ती पर्यायको मामने रखकर विचार चलाते है, अतः पर्यायाथिक है। आ० जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ऋजुसूत्रको भी द्रव्याथिक मानते है । निश्चय और व्यवहार :
आध्यात्मशास्त्रमे नयोके निश्चय और व्यवहार ये दो भेद प्रसिद्ध है। निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवसग्नयको अभृतार्थ भी वही बताया है। जिमप्रकार अद्वैतवादमे पारमार्थिक और व्यावहारिक दो रूपम और अन्यवाद या विज्ञानवादमे परमार्थ और मावृत दो रूपमे या उपनिपदोमे सूक्ष्म और स्थूल दो रूपोमे तत्त्वके वर्णनकी पद्धति देवी जाती है उसी तरह जैन अध्यात्ममे भी निश्चय और व्यवहार इन दो प्रकारोको अपनाया है । अन्तर इतना है कि जैन अध्यात्मका निश्चयनय वास्तविक स्थितिको उपादानके आधारसे पकड़ता है; वह अन्य पदार्थोके अस्तित्वका निषेध नहीं करता, जब कि वेदान्त या विज्ञानद्वैतका परमार्थ अन्य पदार्थोके अस्तित्वको ही समाप्त कर देता है । बुद्धकी धर्मदेशनाको परमार्थसत्य और लोकसंवृतिसत्य इन दो रूपसे घटानेका भी प्रयत्न हुआ है। १. विशेषा० गा० ७५,७७,२२६२ । २.समयसार गा० ११ 1 ३. 'द्वे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोकमवृतिसत्यं च सत्यं च परमार्थतः ॥'
माध्यमिककारिका, आर्यसत्यपरीक्षा, श्लो० ८।