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जैनदर्शन ही इसके विषय होते है । भेद और अभेद दोनों ही इसके कार्यक्षेत्रमें आते है। दो धर्मोमें, दो धर्मियोंमें तथा धर्म और धर्मीमें एकको प्रधान तथा अन्यको गौण करके ग्रहण करना नैगमनयका ही कार्य है, जब कि संग्रहनय केवल अभेदको ही विषय करता है और व्यवहारनय मात्र भेदको ही। यह किसी एकपर नियत नहीं रहता । अतः इसे (नैकं गमः) नैगम कहते है। कार्य-कारण और आधार-आधेय आदिकी दृष्टिसे होनेवाले सभी प्रकार के उपचारोंको भी यही विषय करता है। नैगमाभास:
अवयव-अवयवी, गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान्, सामान्य और सामान्यवान् आदिमे सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है; क्योंकि गुण गुणीसे पृथक् अपनी सत्ता नहीं रखता और न गुणोंकी उपेक्षा करके गुणी ही अपना अस्तित्व रख सकता है । अतः इनमें कथंचित्तादात्म्य सम्बन्ध मानना ही उचित है। इसी तरह अवयव-अवयवी, क्रिया-क्रियावान तथा सामान्य-विशेषमें भी कथंचित्तादात्म्य सम्बन्धको छोड़कर दूसरा सम्बन्ध नहीं है । यदि गुण आदि गुणी आदिसे सर्वथा भिन्न, स्वतन्त्र पदार्थ हों; तो उनमे नियत सम्बन्ध न होनेके कारण गुण-गुणीभाव आदि नहीं बन सकेंगे। कथंचित्तादात्म्यका अर्थ है कि गुण आदि गुणी आदि रूप ही है-उनसे भिन्न नहीं है। जो स्वयं ज्ञानरूप नहीं है वह ज्ञानके समवायसे भी 'ज्ञ' कैसे बन सकता है ? अतः वैशेषिकका गुण आदिका गुणी आदिसे सर्वथा निरपेक्ष भेद मानना नेगमाभास है।
सांख्यका ज्ञान और सुख आदिको आत्मासे भिन्न मानना नैगमाभास है । सांख्यका कहना है कि त्रिगुणात्मक प्रकृतिके सुख-ज्ञानादिक धर्म है, वे
१. त० श्लोकवा० श्लो० २६९ । २. धवलाटी. सत्प्ररू। ३. लघो० स्व० श्लो०३९ ।