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नय- विचार
४५५ उसीमें आविर्भूत और तिरोहित होते रहते हैं । इसी प्रकृति के संसर्गसे पुरुषमें ज्ञानादिकी प्रतीति होती है । प्रकृति इस ज्ञानसुखादिरूप 'व्यक्तकार्यकी' दृष्टिसे दृश्य है तथा अपने कारणरूप 'अव्यक्त' स्वरूपसे अदृश्य है । चेतन पुरुष कूटस्थ - अपरिणामी नित्य है । चैतन्य बुद्धिसे भिन्न है । अतः चेतन पुरुषका धर्म बुद्धि नहीं हैं । इस तरह सांख्यका ज्ञान और आत्मा में सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है; क्योंकि चैतन्य और ज्ञानमें कोई भेद नहीं है । बुद्धि उपलब्धि चैतन्य और ज्ञान आदि सभी पर्यायवाची हैं । सुख और ज्ञानादिको सर्वथा अनित्य और पुरुषको सर्वथा नित्य मानना भी उचित नहीं है; क्योंकि कूटस्थ नित्य पुरुषमें प्रकृति के संसर्गसे भी बन्ध, मोक्ष और भोग आदि नहीं बन सकते । अतः पुरुषको परिणामी नित्य ही मानना चाहिये, तभी उसमें बन्ध-मोक्षादि व्यवहार घट सकते हैं । तात्पर्य यह कि अभेदनिरपेक्ष सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है ।
संग्रह और संग्रहाभास :
अनेक पर्यायोंको एकद्रव्यरूपसे या अनेक द्रव्योंको सादृश्य-मूलक एकत्वरूपसे अभेदग्राही संग्रह नय होता है । इसकी दृष्टिमें विधि हो मुख्य है । द्रव्यको छोड़कर पर्यायें हैं ही नहीं । यह दो प्रकारका होता है— एक परसंग्रह और दूसरा अपरसंग्रह । परसंग्रह में सतरूपसे समस्त पदार्थोंका संग्रह किया जाता है तथा अपरसंग्रह में एकद्रव्यरूपसे समस्त पर्यायोंका तथा द्रव्यरूपसे समस्त द्रव्योंका, गुणरूपसे समस्त गुणोंका, गोत्वरूपसे समस्त गौओंका, मनुष्यत्वरूपसे समस्त मनुष्योंका इत्यादि संग्रह किया जाता है ।
यह अपरसंग्रह तब तक चलता है जब तक भेदमूलक व्यवहार अपनी चरमकोटि तक नहीं पहुँच जाता । अर्थात् जब व्यवहारनय
१. 'शुद्ध द्रव्यमभिप्रैति संग्रहस्तदभेदतः ।' -लघी० श्लो० ३२ ।