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नय-विचार
४५३ भिरूढ और एवंभूत । आचार्य सिद्धसेन ( सन्मति० १।४-५ ) अभेदग्राही नगमका संग्रहमें तथा भेदग्राही नैगमका व्यवहारनयमें अन्तर्भाव करके नयोंके छह भेद ही मानते हैं । तत्त्वार्थभाष्यमें नयोंके मूल भेद पाँच मानकर फिर शब्दनयके तीन भेद करके नयोंके सात भेद गिनाये हैं। नैगमनयके देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी भेद भी तत्त्वार्थभाष्य (११३४-३५) में पाये जाते हैं । षट्खंडागममें नयोंके नगमादि शब्दान्त पाँच भेद गिनाये हैं, पर कसायपाहुडमें मूल पाँच भेद गिनाकर शब्दनयके तीन भेद कर दिये हैं और नैगमनयके संग्रहिक और असंग्रहिक दो भेद भी किये है । इस तरह सात नय मानना प्रायः सर्वसम्मत है । नैगमनय:
संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नैगमनय' होता है। जैसे कोई पुरुष दरवाजा बनानेके लिये लकड़ी काटने जंगल जा रहा है। पूछनेपर वह कहता है कि 'दरवाजा लेने जा रहा हूँ।' यहां दरवाजा बनानेके संकल्पमें ही 'दरवाजा' व्यवहार किया गया है। संकल्य सतमें भी होता है और असत्में भी। इसी नैगमनयकी मर्यादामें अनेकों औपचारिक व्यवहार भी आते हैं । 'आज महावीर जयन्ती है' इत्यादि व्यवहार इसी नयकी दृष्टिसे किये जाते हैं । निगम गाँवको कहते हैं, अतः गांवोंमें जिस प्रकारके ग्रामीण व्यवहार चलते है वे सब इसी नयकी दृष्टिसे होते हैं ।
अकलंकदेवने धर्म और धर्मी दोनोंको गौण-मुख्यभावसे ग्रहण करना नैगम नयका कार्य बताया है । जैसे-'जीवः' कहनेसे ज्ञानादि गुण गौण होकर 'जीव द्रव्य' ही मुख्यरूपसे विवक्षित होता है और 'ज्ञानवान् जीवः' कहनेमें ज्ञान-गुण मुख्य हो जाता है और जीव-द्रव्य गौण। यह न केवल धर्मको ही ग्रहण करता है और न केवल धर्मीको ही । विवक्षानुसार दोनों १. “अनभिनिर्वृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः ।" सर्वार्थसि० १॥३३ । २. लघो० स्व० श्लोक ३९ ।