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________________ ४५२ जैनदर्शन ज्ञाननय, अर्थनय और शब्दनय : ____इनमें ज्ञानाश्रित व्यवहारका संकल्पमात्रग्राही नैगमनयमें समावेश होता है । अर्थाश्रित अभेद व्यवहारका, जो "आत्मैवेदं सर्वम्" "एकस्मिन् वा विज्ञाते सर्व विज्ञातम्" आदि उपनिपद्-वाक्योंसे प्रकट होता है, संग्रहनयमें अन्तर्भाव किया गया है। इससे नीचे तथा एक परमाणुकी वर्तमानकालीन एक अर्थपर्यायसे पहले होनेवाले यावत् मध्यवर्ती भेदोंको, जिनमें नैयायिक, वैशेषिकादि दर्शन है, व्यवहारनयमें शामिल किया गया है । अर्थकी आखिरी देश-कोटि परमाणुरूपता तथा अन्तिम काल-कोटिमें क्षणिकताको ग्रहण करनेवाली बौद्धदृष्टि ऋजुमूत्रनयमें स्थान पाती है । यहाँ तक अर्थको सामने रखकर भेद और अभेद कल्पित हुए हैं । अब शब्दशास्त्रियोंका नम्बर आता है । काल, कारक, संख्या तथा धातुके साथ लगनेवाले भिन्न-भिन्न उपसर्ग आदिसे प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंके वाच्य अर्थ भिन्न-भिन्न हैं । इस काल-कारकादिवाचक शब्दभेदसे अर्थभेद ग्रहण करने वाली दृष्टिका शब्दनयमें समावेश होता है। एक ही साधनसे निष्पन्न तथा एककालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते है । अतः इन पर्यायवाची शब्दोंसे भी अर्थभेद माननेवाली दृष्टि समभिरूढमें स्थान पाती है । एवम्भूत नय कहता है कि जिस समय, जो अर्थ, जिस क्रियामें परिणत हो, उसी समय, उसमें, तत्क्रियासे निष्पन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिये । इसको दृष्टिसे सभी शब्द क्रियासे निष्पन्न हैं। गुणवाचक 'शुक्ल' शब्द शुचिभवनरूप क्रियासे, जातिवाचक 'अश्व' शब्द आशुगमनरूप क्रियासे, क्रियावाचक 'चलति' शब्द चलनेरूप क्रियासे और नामवाचक यदृच्छाशब्द 'देवदत्त' आदि भी 'देवने इसको दिया' आदि क्रियाओंसे निष्पन्न होते हैं । इस तरह ज्ञानाश्रयी, अर्थाश्रयो और शब्दाश्रयो समस्त व्यवहारोंका समन्वय इन नयोंमें किया गया है। मूल नय सातः नयोंके मूल भेद सात है-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, सम
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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