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________________ नय-विचार ४५१ 'घड़ा' शब्दसे नामघट, स्थापनाघट और द्रव्यघट विवक्षित नहीं, किन्तु 'भावघट' विवक्षित है । शेरके लिये रोनेवाले बालकको चुप करनेके लिये नामशेर, द्रव्यशेर और भावशेर नहीं चाहिये; किन्तु स्थापनाशेर चाहिये । 'गजराजको बुलाओ' यहाँ स्थापनागजराज, द्रव्यगजराज या भावगजराज नहीं बुलाया जाता किन्तु 'नाम गजराज' ही बुलाया जाता है । अतः अप्रस्तुतका निराकरण करके प्रस्तुतका ज्ञान करना निक्षेपका मुख्य प्रयोजन है। तीन और सात नय: __ इस तरह जब हम प्रत्येक पदार्थको अर्थ, शब्द और ज्ञानके आकारोंमे बांटते है तो इनके ग्राहक ज्ञान भी स्वभावतः तीन श्रेणियोंमे बँट जाते है-ज्ञाननय, अर्थनय और शब्दनय । कुछ व्यवहार केवल ज्ञानाश्रयी होते है, उनमें अर्थक तथाभूत होनेको चिन्ता नहीं होती, वे केवल संकल्पसे चलते है। जैसे-आज 'महावीर जयंती' है । अर्थके आधारसे चलने वाले व्यवहारमे एक ओर नित्य, एक और व्यापी रूपमे चरम अभेदकी कल्पना की जा सकती है, तो दूसरी ओर क्षणिकत्व, परमाणुत्व और निरंशत्वकी दृष्टिसे अन्तिम भेदकी कल्पना । तीसरी कल्पना इन दोनों चरम कोटियोके मध्यकी है। पहली कोटिमे सर्वथा अभेद-एकत्व स्वीकार करने वाले औषनिषद अद्वैतवादी है तो दूसरी ओर वस्तुको सूक्ष्मतम वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्यायके ऊपर दृष्टि रखनेवाले क्षणिक निरंश परमाणुवादी बौद्ध है। तीसरी कोटिमे पदार्थको नानारूपसे व्यवहारमे लानेवाले नैयायिक, बैशेषिक आदि है । चौथे प्रकारके व्यक्ति है भाषाशास्त्री । ये एक ही अर्थमे विभिन्न शब्दोंके प्रयोगको मानते है, परन्तु शब्दनय शब्दभेदसे अर्थभेदको अनिवार्य समझता है । इन सभी प्रकारके व्यवहारोंके समन्वयके लिये जैन परम्पराने 'नय-पद्धति' स्वीकार की है । नयका अर्थ है-अभिप्राय, दृष्टि, विवक्षा या अपेक्षा।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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