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उभयस्वतन्त्रवादमीमांसा ४३७ सम्बन्ध होता है । वैशेषिकका मूल मन्त्र है-प्रत्ययके आधारसे पदार्थ व्यवस्था करना ! चूंकि 'द्रव्यं द्रव्यं यह प्रत्यय होता है, अतः द्रव्य एक पदार्थ है । 'गुणः गुणः' 'कर्म कर्म' इस प्रकारके स्वतन्त्र प्रत्यय होते हैं, अतः गुण और कर्म स्वतन्त्र पदार्थ हैं। इसी तरह अनुगताकार प्रत्ययके कारण सामान्य पदार्थ; नित्य पदार्थोंमें परस्पर भेद स्थापित करनेके लिये विशेषपदार्थ और 'इहेदं' प्रत्ययसे समवाय पदार्थ माने गये हैं। जितने प्रकारके ज्ञान और शब्दव्यवहार होते हैं उनका वर्गीकरण करके असांकर्यभावसे उतने पदार्थ माननेका प्रयत्न वैशेषिकोंने किया है। इसीलिए इन्हें 'संप्रत्ययोपाध्याय' कहा जाता है ।
उत्तरपक्ष :
किन्तु प्रत्यय अर्थात् ज्ञान और शब्दका व्यवहार इतने अपरिपूर्ण और लवर हैं कि इनपर पूरा-पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। ये तो वस्तुस्वरूपकी ओर मात्र इशारा ही कर सकते हैं। बल्कि अखण्ड और अनिर्वचनीय वस्तुको समझने-समझानेके लिये उसको खंड-खंड कर डालते हैं और इतना विश्लेषण कर डालते हैं कि उसी वस्तुके अंश स्वतन्त्र पदार्थ मालूम पड़ने लगते हैं । गुण-गुणांश और देश-देशांशकी कल्पना भी आखिर बुद्धि और शब्द व्यवहारकी ही करामात है। एक अखंड द्रव्यसे पृथक्भूत या पृथक्सिद्ध गुण और क्रिया नहीं रह सकती और न बताई जा सकती हैं फिर भी बुद्धि उन्हें पृथक् पदार्थ बतानेको तैयार है। पदार्थ तो अपना ठोस और अखंड अस्तित्व रखता है, वह अपने परिणमनके अनुसार अनेक प्रत्ययोंका विषय हो सकता है। गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं, ये तो द्रव्यको अवस्थाओं के विभिन्न व्यवहार हैं।
इस तरह सामान्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, जो नित्य और एक होकर अनेक स्वतन्त्रसत्ताक व्यक्तियोंमें मोतियोंमें सूतकी तरह पिरोया गया हो। पदार्थोके कुछ परिणमन सदृश भी होते हैं और कुछ विसदृश