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________________ ४३६ जैनदर्शन माननेकी है, जो प्रतीतिविरुद्ध है; क्योंकि प्रकृत अनुमानको यदि निर्विषय माना जाता है, तो इससे 'निरालम्बन ज्ञानवाद' ही सिद्ध नहीं हो सकता । यदि सविषय मानते हैं; तो इसी अनुमानसे हेतु व्यभिचारी हो जाता है । अतः जिन प्रत्ययों का बाह्यार्थ उपलब्ध होता है उन्हें सविषय और जिनका उपलब्ध नहीं होता, उन्हें निर्विषय मानना उचित है । ज्ञानोंमें सत्य और असत्य या अविसंवादी और विसंवादी व्यवस्था बाह्यार्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे ही तो होती है। अग्निके ज्ञानसे पानी गरम नहीं किया जा सकता । जगतका समस्त बाह्य व्यवहार बाह्य पदार्थोंकी वास्तविक सत्तासे ही संभव होता है । संकेतके अनुसार शब्दप्रयोगोंकी स्वतंत्रता होने पर भी पदार्थोंके निजसिद्ध स्वरूप या अस्तित्व किसीके संकेतसे उत्पन्न नहीं हो सकते। बाह्मार्थकी तरह ज्ञानका भी अभाव माननेवाले सर्वशून्यपक्षको तो सिद्ध करना ही कठिन है । जिस प्रमाणसे सर्वशून्यता साधी जाती है उस प्रमाणको भी यदि शून्य अर्थात् असत् माना जाता है; तो फिर शून्यता किससे सिद्ध की जायगी ? और यदि वह प्रमाण अशून्य अर्थात् सत् है; तो 'सर्वं शून्यम्' कहाँ रहा ? कम-से-कम उस प्रमाणको तो अशून्य मानना ही पड़ा । प्रमाण और प्रमेय व्यवहार परस्परसापेक्ष हो सकते हैं, परन्तु उनका स्वरूप परस्पर- सापेक्ष नहीं है, वह तो स्वतः सिद्ध है । अतः क्षणिक और शून्य भावनाओंसे वस्तुकी सिद्धि नहीं की जा सकती । इसतरह विशेषपदार्थवाद भी विषयाभास है; क्योंकि जैसा उसका वर्णन है वैसा उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो पाता । उभयस्वतन्त्रवाद मीमांसा : पूर्वपक्ष: वैशेषिक सामान्य अर्थात् जाति और द्रव्य, गुण, कर्मरूप विशेष अर्थात् व्यक्तियोंको स्वतन्त्र पदार्थ मानते हैं । सामान्य और विशेषका समवाय
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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