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क्षणिकवायमीमांसा
४३५ भी है । जो प्रतीत्य-अपेक्षा करता है, वही उत्पन्न होता है । अतः इस एक द्रव्यप्रत्यासत्तिको हर हालतमें स्वीकार करना ही होगा। अव्यभिचारी कार्यकारणभावके आधारसे पूर्व और उत्तर क्षणोंमें एक सन्तति तभी बन सकती है जब कार्य और कारणमें अव्यभिचारिताका नियामक कोई अनुस्यूत परमार्थ तत्त्व स्वीकार किया जाय । विज्ञानवादकी समीक्षाः
इसीतरह विज्ञानवादमें बाह्यार्थके अस्तित्वका सर्वथा लोप करके केवल उन्हें वासनाकल्पित ही कहना उचित नहीं है। यह ठीक है कि पदार्थोंमें अनेक प्रकारको संज्ञाएँ और शब्दप्रयोग हमारी कल्पनासे कल्पित हों ,पर जो ठोस और सत्य पदार्थ है उनकी सत्तासे इनकार नहीं किया जा सकता। नीलपदार्थकी सत्ता नीलविज्ञानसे सिद्ध भले ही हो, पर नीलविज्ञान नीलपदार्थकी सत्ताको उत्पन्न नहीं करता। वह स्वयं सिद्ध है, और नीलविज्ञानके न होने पर भी उसका स्वसिद्ध अस्तित्व है ही। आँख पदार्थको देखती है, न कि पदार्थको उत्पन्न करती है। प्रमेय और प्रमाण ये संज्ञाएँ सापेक्ष हों, पर दोनों पदार्थ अपनी-अपनी सामग्रीसे स्वतःसिद्ध उत्पत्तिवाले है। वासना और कल्पनासे पदार्थको इष्ट-अनिष्ट रूपमें चित्रित किया जाता है, परन्तु पदार्थ उत्पन्न नहीं किया जा सकता। अतः विज्ञानवाद आजके प्रयोगसिद्ध विज्ञानसे न केवल बाधित ही है, किन्तु व्यवहारानुपयोगी भी है। शून्यवादकी आलोचना :
शून्यवादके दो रूप हमारे सामने है-एक तो स्वप्नप्रत्ययकी तरह समस्त प्रत्ययोंको निरालम्बन कहना अर्थात् प्रत्ययकी सत्ता तो स्वीकार करना, पर उन्हें निर्विपय मानना और दूसरा बाह्यार्थकी तरह ज्ञानका भी लोप करके सर्वशून्य मानना। प्रथम कल्पना एक प्रकारसे निविषय ज्ञान