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जैनदर्शन भी। दो स्वतन्त्रसत्ताक विभिन्न व्यक्तियोंमें भूयःसाम्य देखकर अनुगत व्यवहार होता है। अनेक आत्माएँ संसार अवस्थामें अपने विभिन्न शरीरोंमें वर्तमान है। जिनकी अवयवरचना अमुक प्रकारको सदृश है उनमें 'मनुष्यः मनुष्यः' ऐसा व्यवहार संकेतके अनुसार होता है और जिनकी शरीररचना संकेतानुसार घोड़ों जैसी है उनमें 'अश्वः अश्वः' यह व्यवहार होता है। जिन आत्माओंमे अवयवसादृश्यके आधारसे मनुष्यव्यवहार होता है उनमे 'मनुष्यत्व' नामका कोई ऐमा सामान्य पदार्थ नहीं है, जो अपनी स्वतन्त्र, नित्य, एक और अनेकानुगत सत्ता रखता हो और समवायसम्बन्धसे उनमे रहता हो। इतनी भेदकल्पना पदार्थस्थितिके प्रतिकूल है। ‘सत् सत्', 'द्रव्यम् द्रव्यम्', 'गुणः गुणः', 'मनुष्यः मनुष्यः' इत्यादि सभी व्यवहार सादृश्यमूलक है। सादृश्य भी प्रत्येकनिष्ठ धर्म है, कोई अनेकनिष्ठ स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। वह तो अनेक अवयवोंको समानतारूप है और तत्तद् अवयव उन-उन व्यक्तियोंमे ही रहते है। उनमें समानता देखकर द्रष्टा अनेक प्रकारके छोटे-बड़े दायरेवाले अनुगतव्यवहार करने लगता है।
सामान्य नित्य, एक और निरंश होकर यदि सर्वगत है, तो उसे विभिन्नदेशवाली स्वव्यक्तियोंमे खण्डशः रहना होगा; क्योंकि एक वस्तु एक साथ भिन्न देशोंमें पूर्णरूपसे नहीं रह सकती। नित्य और निरंश सामान्य जिस समय एक व्यक्तिमें प्रकट होता है उसी समय उसे सर्वत्र-व्यक्तियोंके अन्तरालमें भी प्रकट होना चाहिये । अन्यथा क्वचित् व्यक्त और क्वचित् अव्यक्त रूपसे स्वरूपभेद होनेपर अनित्यत्व और सांशत्वका प्रसंग प्राप्त होता है।
जिस तरह सत्तासामान्य पदार्थ अन्य किसी 'सत्तात्व' नामक सामान्यके बिना ही स्वतः सत है उसी तरह द्रव्यादि भी स्वतः सत् ही क्यों न माने जॉय ? सत्ताके सम्बन्धसे पहले पदार्थ सत् हैं, या असत् ? यदि सत् हैं; तो सत्ताका सम्बन्ध मानना निरर्थक है। यदि असत है; तो उनमें