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सांख्यतत्त्वमीमांसा
४२३ द्वष हैं । चेतन भावोंमें चेतन ही उपादान हो सकता है, जड़ नहीं। स्वयं राग और द्वेषसे शून्य जड़ पदार्थ आत्माओंके राग और द्वेषके निमित्त बन सकते हैं।
यदि बन्ध और मोक्ष प्रकृतिको ही होते है, तो पुरुषको कल्पना निरर्थक है । बुद्धिमें विषयकी छाया पड़नेपर भी यदि पुरुषमें भोक्तृत्व रूप परिणमन नहीं होता, तो उसे भोक्ता कैसे माना जाय ? पुरुष यदि सर्वथा निष्क्रिय है; तो वह भोगक्रियाका कर्ता भी नहीं हो सकता और इसीलिए भोक्तृत्वके स्थानमें अकर्ता पुरुषको कोई संगति ही नहीं बैठती। ___ मूल प्रकृति यदि निर्विकार है और उत्पाद और व्यय केवल धर्मोमें ही होते है, तो प्रकृतिको परिणामी कैसे कहा जा सकता है ? कारणमें कार्योत्पादनको शक्ति तो मानी जा सकती है, पर कार्यकालकी तरह उसका प्रकट सद्भाव स्वीकार नहीं किया जा सकता। 'मिट्टीमें घड़ा अपने आकारमें मौजूद है और वह केवल कुम्हारके व्यापारसे प्रकट होता है' इसके स्थानमें यह कहना अधिक उपयुक्त है कि मिट्टीमें सामान्य रूपसे घटादि कार्योके उत्पादन करनेकी शक्ति है, कुम्हारके व्यापार आदिका निमित्त पाकर वह शक्तिवाली मिट्टी अपनी पूर्वपिण्डपर्यायको छोड़कर घटपर्यायको धारण करती है', यानी मिट्टी स्वयं घड़ा बन जाती है । कार्य द्रव्यकी पर्याय है और वह पर्याय किसी भी द्रव्यमे शक्तिरूपसे ही व्यवहृत हो सकती है।
वस्तुतः प्रकृतिके संसर्गसे उत्पन्न होनेपर भी बुद्धि, अहंकार आदि धर्मोंका आधार पुरुष ही हो सकता है, भले ही ये धर्म प्रकृतिसंसर्गज होनेसे अनित्य हों। अभिन्न स्वभाववाली एक ही प्रकृति अखण्ड तत्त्व होकर कैसे अनन्त पुरुषोंके साथ विभिन्न प्रकारका संसर्ग एकसाथ कर सकती है ? अभिन्न स्वभाव होनेके कारण सबके साथ एक प्रकारका ही संसर्ग होना चाहिये । फिर मुक्तात्माओंके साथ असंसर्ग और संसारी आत्माओंके साथ संसर्ग यह भेद भी व्यापक और अभिन्न प्रकृतिमे कैसे बन सकता है ?