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जैनदर्शन
प्रकृतिको अन्धो और पुरुषको पङ्ग मानकर दोनोंके संसर्गसे सृष्टिको कल्पनाका विचार सुनने में सुन्दर तो लगता है, पर जिस प्रकार अन्ध
और पङ्ग दोनोंमें संसर्गकी इच्छा और उस जातिका परिणमन होनेपर ही सृष्टि सम्भव होती है, उसी तरह जबतक पुरुष और प्रकृति दोनोंमें स्वतन्त्र परिणमनकी योग्यता नहीं मानी जायगी तबतक एकके परिणामी होनेपर भी न तो संसर्गकी सम्भावना है और न सृष्टिकी ही । दोनों एक दूसरेके परिणमनोंमें निमित्त कारण हो सकते हैं, उपादान नहीं।
एक ही चैतन्य हर्प, विषाद, ज्ञान, विज्ञान आदि अनेक पर्यायोंको धारण करनेवाला संविद्-रूपसे अनुभवमें आता है । उसी में महान्, अहङ्कार आदि संज्ञाएँ की जा सकती है, पर इन विभिन्न भावोंको चेतनसे भिन्न जड़-प्रकृतिका धर्म नहीं माना जा सकता। जलमें कमलकी तरह पुरुष यदि सर्वथा निर्लिप्त है, तो प्रकृतिगत परिणामोंका औपचारिक भोक्तृत्व घटा देनेपर भी वस्तुतः न तो वह भोक्ता हो सिद्ध होता है और न चेतयिता ही। अतः पुरुषको वास्तविक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यका आधार मानकर परिणामी नित्य ही स्वीकार करना चाहिए । अन्यथा कृतनाश और अकृताभ्यागम नामके दूषण आते हैं। जिस प्रकृतिने कार्य किया, वह तो उसका फल नहीं भोगती और जो पुरुष भोक्ता होता है, वह कर्ता नहीं है। यह असंगति पुरुपको अधिकारी माननेमें बनी ही रहती है।
यदि 'व्यक्त' रूप महदादि विकार और 'अव्यक्त' रूप प्रकृतिमें अभेद है, तो महदादिकी उत्पत्ति और विनाशसे प्रकृति अलिप्त कैसे रह सकती है ? अतः परस्पर विरोधी अनन्त कार्योकी उत्पत्तिके निर्वाहके लिए अनन्त ही प्रकृतितत्त्व जुदे-जुदे मानना चाहिए। जिनके विलक्षण परिणमनोंसे इस सृष्टिका वैचित्र्य सुसंगत हो सकता है । वे सब तत्त्व एक प्रकृतिजातिके हो सकते हैं यानी जातिकी अपेक्षा वे एक कहे जा सकते हैं; पर सर्वथा एक नहीं, उनका पृथक् अस्तित्व रहना ही चाहिए । शब्दसे