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जैनदर्शन
प्रकृतिका नहीं हैं, प्रकृति मेरी नहीं है' इस प्रकारका तत्त्वज्ञान हो गया है और यह मुझसे विरक्त हैं, तब वह स्वयं हताश होकर पुरुषका संसर्ग छोड़ देती है । तात्पर्य यह कि सारा खेल इस प्रकृतिका है ।
उत्तरपक्ष :
किन्तु सांख्यकी इस तत्त्वप्रक्रियामें सबसे बड़े दोष ये हैं । जब एक ही प्रधानका अस्तित्व संसार में है, तब उस एक तत्त्वसे महान्, अहंकाररूप चेतन और रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि अचेतन इस तरह परस्पर विरोधी दो कार्य कैसे उत्पन्न हो सकते हैं ? उसी एक कारणसे अमूर्तिक आकाश और मूर्तिक पृथिव्यादिको उत्पत्ति मानना भी किसी तरह संगत नहीं । एक कारण परस्पर अत्यन्त विरोधी दो कार्योंको उत्पन्न नहीं कर सकता । विषयोंका निश्चय करनेवाली बुद्धि और अहंकार चेतनके धर्म हैं । इनका उपादान कारण जड़ प्रकृति नहीं हो सकती । सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंके कार्य जो प्रसाद, ताप, शोष आदि बताये हैं, वे भी. चेतनके ही विकार हैं । उनमें प्रकृतिको उपादान कहना किसी भी तरह संगत नहीं है । एक अखण्ड तत्त्व एक ही समय में परस्पर विरोधी चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त्त, सत्त्वप्रधान, रजः प्रधान, तमः प्रधान आदि अनेक विरोधी कार्यों के रूपसे कैसे वास्तविक परिणमन कर सकता है ? किसी आत्मामें एक पुस्तक राग उत्पन्न करती है और वही पुस्तक दूसरी आत्मामें द्वेष उत्पन्न करती है, तो उसका अर्थ नहीं है कि पुस्तकमें राग और
१. यद्यपि मौलिक सांख्योंका एक प्राचीन पक्ष यह था कि हर एक पुरुषके साथ संसर्ग रखनेवाला ‘प्रधान' जुदा-जुदा है अर्थात् प्रधान अनेक है। जैसा कि षट्द० समु० गुणरत्नटीका ( पृ० ९९ ) के इस अवतरणसे ज्ञात होता है- "मौलिकसांख्या हि आत्मानमात्मानं प्रति पृथक् प्रधानं वदन्ति । उत्तरे तु सांख्याः सर्वात्मस्वपि एकं नित्यं प्रधानमिति प्रतिपन्नाः ।" किन्तु सांख्यकारिका आदि उपलब्ध सांख्यग्रन्थोंमें इस पक्षका कोई निर्देश तक नहीं मिलता ।