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सांख्यतत्त्वमीमांसा
४२१ तन्मात्राओंमें, तन्मात्रादि सोलह गण अहंकारमें, अहंकार बुद्धिमें और बुद्धि प्रकृतिमें लीन हो जाती है। उस समय व्यक्त और अव्यक्तका विवेक नहीं रहता।
'इनमें मूल प्रकृति कारण ही होती है और ग्यारह इन्द्रियाँ तथा पाँच भूत ये सोलह कार्य ही होते हैं और महान, अहंकार तथा पांच तन्मात्राएँ ये सात पूर्वकी अपेक्षा कार्य और उत्तरकी अपेक्षा कारण होते हैं। इस तरह एक सामान्य प्रधान तत्त्वसे इस समस्त जगतका विपरिणाम होता है और प्रलयकालमें उसीमें उनका लय हो जाता है । पुरुष जलमें कमलपत्रकी तरह निलिप्त है, साक्षी है, चेतन है और निर्गुण है। प्रकृतिसंसर्गके कारण 'बुद्धिरूपी माध्यमके द्वारा इसमें भोगको कल्पना की जाती है । बुद्धि दोनों ओरसे पारदर्शी दर्पणके समान है। इस मध्यभूत दर्पणमें एक ओरसे इन्द्रियों द्वारा विषयोंका प्रतिबिम्ब पड़ता है और दूसरी ओरसे पुरुषकी छाया। इस छायापत्तिके कारण पुरुपमें भोगनेका भान होता है, यानी परिणमन तो बुद्धि में ही होता है और भोगका भान पुरुषमें होता है । वही बुद्धि पुरुष और पदार्थ दोनोंकी छायाको ग्रहण करती है। इस तरह बुद्धिदर्पणमें दोनोंके प्रतिविम्बित होनेका नाम ही भोग है। वैसे पुरुप तो कूटस्थनित्य और अविकारी है, उसमें कोई परिणमन नहीं होता।
बंधती भी प्रकृति ही है और छूटती भी प्रकृति ही है। प्रकृति एक वेश्याके समान है। जब वह जान लेती है कि इस पुरुषको 'मैं
१. "मूलप्रकृतिविकृतिः महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥"
-सांख्यका० ३। २. “बुद्धिदर्पणे पुरुषप्रतिबिम्बसक्रान्तिरेव बुद्धिप्रतिसंवेदित्व पुसः। तथा च दृशिच्छायापन्नया बुद्धया संसृष्टाः शब्दादयो भवन्ति दृश्या इत्यर्थः ।"-योगसू० तत्त्ववै० २।२०।