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________________ ४२० जैनदर्शन अतः ज्ञात होता है कि जिनसे जो उत्पन्न होते है उनमें उन कार्योंका सद्भाव है। (४) प्रतिनियत कारणोंकी प्रतिनियत कार्यके उत्पन्न करनेमें ही शक्ति देखी जाती है। समर्थ भी हेतु शक्यक्रिय कार्यको ही उत्पन्न करते है, अशक्यको नहीं। जो अशक्य है वह शक्यक्रिय हो ही नहीं सकता। (५) जगतमें कार्यकारणभाव ही सत्कार्यवादका सबसे बड़ा प्रमाण है । बीजको कारण कहना इस बातका साक्षी है कि उसमें ही कार्यका सद्भाव है, अन्यथा उसे कारण ही नहीं कह सकते थे। समस्त जगतका कारण एक प्रधान है। एक प्रधान अर्थात् प्रकृतिसे यह समस्त जगत उत्पन्न होता है । प्रधानसे उत्पन्न होनेवाले कार्य परिमित देखे जाते है। उनकी संख्या है। सबमें सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंका अन्वय देखा जाता है। हर कार्य किसी-न-किसीको प्रसाद, लाघव, हर्ष, प्रीति ( मत्त्वगुणके कार्य), ताप, शोष, उद्वेग ( रजोगुणके कार्य ), दैन्य, बीभत्स, गौरव ( तमोगुणके कार्य ) आदि भाव उत्पन्न करता है। यदि कार्यों में स्वयं सत्त्व, रज और तम ये तीन गुण न होते; तो वह उक्त भावोंमें कारण नहीं बन सकता था। प्रधानमें ऐसी शक्ति है, जिससे वह महान् आदि 'व्यक्त' उत्पन्न करता है । जिस तरह घटादि कार्योंको देखकर उनके मिट्टी आदि कारणोंका अनुमान होता है, उसी तरह 'महान्' आदि कार्योसे उनके उत्पादक प्रधानका अनुमान होता है । प्रलयकालमें समस्त कार्योका लय इसी एक प्रकृतिमें हो जाता है। पांच महाभूत पाँच १. "भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तितः प्रवृत्तेश्च । कारणकार्यविभागादविभागाद् वैश्वरूप्यस्य ॥" -सांख्यका० १५।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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