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________________ शब्दाद्वैतवादमीमांसा ४१७ प्राप्ति सहजमे हो सकती है। इसमें शब्दज्ञान और आत्मज्ञानका उत्पत्तिक्रम बताया गया है, न कि जगतमें 'मात्र एक शब्द तत्त्व हैं, इस प्रतीतिविरुद्ध अव्यावहारिक सिद्धान्तका प्रतिपादन किया गया है। सीधी-सी बात है कि साधकको पहले शब्दव्यवहारमें कुशलता प्राप्त करनी चाहिये, तभी वह शब्दोंकी उलझनसे ऊपर उठकर यथार्थ तत्त्वतक पहुँच सकता है । अविद्या और मायाके नामसे सुनिश्चित कार्यकारणभावमूलक जगत के व्यवहारोंको और घटपटादि भेदोंको काल्पनिक और अमत्य इसलिए नहीं ठहराया जा सकता कि स्वयं अविद्या जब भेदप्रतिभासरूप या भेदप्रतिभासरूपी कार्यको उत्पन्न करनेवाली होनेमे वस्तुसत् सिद्ध हो जाती है, तब वह स्वयं पृथक् मत् होकर उस अद्वैतकी विघातक बनती । निष्कर्ष यह कि अविद्याकी तरह अन्य घटपटादिभेदोंको वस्तुमत् होनेमे क्या बाधा है ? सर्वथा नित्य शब्दब्रह्मसे न तो कार्योकी क्रमिक उत्पत्ति हो सकती है और न उसका क्रमिक परिणमन हो; क्योंकि नित्य पदार्थ मदा एकरूप, अविकारी और ममर्थ होनेके कारण क्रमिक कार्य या परिणमनका आधार नहीं हो सकता । सर्वथा नित्यमे परिणमन कैसा ? शब्दब्रह्म जब अर्थरूपसे परिणमन करता है, तब यदि शब्दरूपताको छोड़ देता है, तो सर्वथा नित्य कहाँ रहा ? यदि नहीं छोड़ता है, तो शब्द और अर्थ दोनोंका एक इन्द्रियके द्वारा ग्रहण होना चाहिये । एक शब्दाकारसे अनुस्यूत होनेके कारण जगतके समस्त प्रत्ययों को एकजातिवाला या समानजातिवाला तो कह सकते हैं, पर एक नहीं। जैसे कि एक मिट्टीके आकारसे अनुस्यूत होनेके कारण घट, सुराहो, मकोरा आदिको मिट्टीकी जातिका और मिट्टी से वना हुआ हो तो कहा जाता है, न कि इन सबकी एक सत्ता स्थापित की जा सकती है । जगतका प्रत्येक पदार्थ समान और असमान दोनों धर्मोका आधार होता है । समान धर्मोकी दृष्टिसे उनमें २७
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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