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जैनदर्शन
तो बूढ़ा, लाठी, गति और जमीन सब लाठीकी पर्यायें तो नहीं हो सकतीं ? अनेक प्रतिभास ऐसे होते हैं जिन्हें शब्दको स्वल्प शक्ति स्पर्श भी नहीं कर सकती और असंख्य पदार्थ ऐसे पड़े हुए हैं जिन तक मनुष्यका संकेत और उसके द्वारा प्रयुक्त होनेवाले शब्द नहीं पहुँच पाये है । घटादि पदार्थोंको कोई जाने, या न जाने, उनके वाचक शब्दका प्रयोग करे, या न करे; पर उनका अपना अस्तित्व शब्द और ज्ञानके अभावमें भी है ही । शब्दरहित पदार्थ आँखसे दिखाई देता है और अर्थरहित शब्द कानसे सुनाई देता है ।
यदि शब्द और अर्थ में तादात्म्य हो, तो अग्नि, पत्थर, छुरा आदि शब्दों को सुननेसे श्रोत्रका दाह, अभिघात और छेदन आदि होना चाहिये । शब्द और अर्थ भिन्न देश, भिन्न काल और भिन्न आकारवाले होकर एक दूसरेसे निरपेक्ष विभिन्न इन्द्रियोंसे गृहीत होते हैं । अतः उनमें तादात्म्य मानना युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है । जगतका व्यवहार केवल शब्दात्मक ही तो नहीं है ? अन्य संकेत, स्थापना आदिके द्वारा भी सैकड़ों व्यवहार चलते हैं । अतः शाब्दिक व्यवहार शब्दके बिना न भी हों; पर अन्य व्यवहारोंके चलनेमें क्या वाधा है ? यदि शब्द और अर्थ अभिन्न हैं; तो अंधेको शब्द सुननेपर रूप दिखाई देना चाहिये और बहरेको रूपके दिखाई देनेपर शब्द सुनाई देना चाहिये ।
शब्दसे अर्थकी उत्पत्ति कहना या शब्दका अर्थरूपसे परिणमन मानना विज्ञानसिद्ध कार्यकारणभावके सर्वथा प्रतिकूल है । शब्द तालु आदिके अभिघातसे उत्पन्न होता है और घटादि पदार्थ अपने-अपने कारणोंसे । स्वयंसिद्ध दोनोंमें संकेतके अनुसार वाच्य वाचकभाव बन जाता है ।
जो उपनिषद्वाक्य शब्दब्रह्मकी सिद्धि के लिये दिया जाता है, उसका सोधा अर्थ तो यह कि दो विद्याएँ जगतमें उपादेय हैं - एक शब्दविद्या और दूसरी ब्रह्मविद्या । शब्दविद्यामें निष्णात व्यक्तिको ब्रह्मविद्याकी
१. 'द्वे विद्ये वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् । ' - ब्रह्मबिन्दू० २२ ।