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जैनदर्शन
'एक जातिक' व्यवहार होनेपर भी अपने व्यक्तिगत असाधारण स्वभावके कारण उनका स्वतन्त्र अस्तित्व रहता ही है। प्राणोंको अन्नमय कहनेका अर्थ यह नहीं है कि अन्न और प्राण एक वस्तु है।
विशुद्ध आकाशमें तिमिर-रोगीको जो अनेक प्रकारकी रेखाओंका मिथ्या भान होता है, उसमें मिथ्या-प्रतिभासका कारण तिमिररोग वास्तविक है, तभी वह वस्तुसत् आकाशमें वस्तुसत् रोगीको मिथ्या प्रतीति कराता है। इसी तरह यदि भेदप्रतिभासको कारणभूत अविद्या वस्तुसत् मानी जाती है; तो शब्दाद्वैतवाद अपने आप समाप्त है । अतः शुष्क कल्पनाके क्षेत्रसे निकलकर दर्शनशास्त्रमें हमें स्वसिद्ध पदार्थोंकी विज्ञानाविरुद्ध व्याख्या करनी चाहिये, न कि कल्पनाके आधारसे नये-नये पदार्थों की सृष्टि । 'सभी ज्ञान शब्दान्वित हों ही' यह भी ऐकान्तिक नियम नहीं है; क्योंकि भाषा और संकेतसे अनभिज्ञ व्यक्तिको पदार्थों का प्रतिभास होने पर भी तद्वाचक शब्दोंकी योजना नहीं हो पाती। अतः शब्दाद्वैतवाद भी प्रत्यक्षादिसे बाधित है। सांख्यके 'प्रधान' सामान्यवादकी मीमांसा : पूर्वपक्ष:
सांख्य मूलमें दो तत्त्व मानते हैं । एक प्रकृति और दूसरा पुरुष । पुरुषतत्त्व व्यापक, निष्क्रिय, कूटस्थ, नित्य और ज्ञानादिपरिणामसे शून्य केवल चेतन है। यह पुरुषतत्त्व अनन्त है, सबकी अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता है। प्रकृति, जिसे प्रधान भी कहते हैं, परिणामी-नित्य है। इसमें एक अवस्था तिरोहित होकर दूसरी अवस्था आविर्भूत होती है। यह एक है, त्रिगुणात्मक है, विषय है, सामान्य है और महान् आदि विकारोंको
१. "त्रिगुणमविवेकि विषयः सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि । व्यक्तं तथा प्रधानं तद्विपरीतस्तथा च पुमान् ॥"
-सांख्यका० ११।