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जैनदर्शन जैनका उत्तरपक्ष:
किन्तु, प्रत्यक्षसिद्ध ठोस और तात्त्विक जड़ और चेतन पदार्थोंका मात्र अविद्याके हवाई प्रहारसे निषेध नहीं किया जा सकता। विज्ञानकी प्रयोगशालाओंने अनन्त जड़ परमाणुओंका पृथक् तात्त्विक अस्तित्व सिद्ध किया ही है। तुम्हारा कल्पित ब्रह्म ही उन तथ्य और सत्यसाधक प्रयोग शालाओंमें सिद्ध नहीं हो सका है । यह ठीक है कि हम अपनी शब्दसंकेतको वासनाके अनुसार किसी परमाणुसमुदायको घट, घड़ा, कलश आदि अनेक शब्दसंकेतोंसे व्यक्त करें और इस व्यक्तिकरणकी अपनी सीमित मर्यादा भी हो, पर इतने मात्रसे उन परमाणुओंको सत्तासे और परमाणुओंसे बने हुए विशिष्ट आकारवाले ठोस पदार्थोंकी सत्तासे इनकार नहीं किया जा सकता। स्वतन्त्र, वजनवाले और अपने गुणधर्मोके अखण्ड आधारभूत उन परमाणुओंके व्यक्तित्वका अभेदगामिनी दृष्टिके द्वारा विलय नहीं किया जा सकता। उन सबमें अभिन्न सत्ताका दर्शन ही काल्पनिक है। जैसे कि अपनी पृथक् पृथक् सत्ता रखनेवाले छात्रोंके समुदायमें सामाजिक भावनासे कल्पित किया गया एक 'छात्रमण्डल' मात्र व्यवहारसत्य है, वह समझ और समझौतेके अनुसार संगठित और विघटित भी किया जाता है, उसका विस्तार और संकोच भी होता है और अन्ततः उसका भावनाके सिवाय वास्तविक कोई ठोस अस्तित्व नहीं है, उसी तरह एक 'सत् सत्' के आधारसे कल्पित किया गया अभेद अपनी सीमाओंमें संघटित और विघटित होता रहता है । इस एक सत्का ही अस्तित्व व्यावहारिक और प्रातिभासिक है, न कि अनन्त चेतन द्रव्यों और अनन्त अचेतन परमाणुओंका। असंख्य प्रयत्न करनेपर भी जगतके रंगमञ्चसे एक भी परमाणका अस्तित्व नहीं मिटाया जा सकता। ___ दृष्टिसृष्टि तो उस शतुमुर्ग जैसी बात है जो अपनी आँखोंको बन्द करके गर्दन नीची कर समझता है कि जगतमें कुछ नहीं है। अपनी आँखें खोलने या बन्द करनेसे जगतके अस्तित्व या नास्तित्वका