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________________ ब्रह्मवादमीमांसा ४०९ कोई सम्बन्ध नहीं है। आँखें बन्द करना और खोलना अप्रतिभास, प्रतिभास या विचित्र प्रतिभाससे सम्बन्ध रखता है, न कि विज्ञानसिद्ध कार्यकारणपरम्परासे प्रतिबद्ध पदार्थोंके अस्तित्वसे । किसी स्वयंसिद्ध पदार्थमें विभिन्न रागी, द्वेषी और मोही पुरुषोंके द्वारा की जानेवाली इष्टअनिष्ट, अच्छी-बुरी, हित-अहित आदि कल्पनाएँ भले ही दृष्टि-सृष्टिकी सीमामें आवें और उनका अस्तित्व उस व्यक्तिके प्रतिभास तक ही सीमित हो और व्यावहारिक हो, पर उस पदार्थका और उसके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि वास्तविक गुण-धर्मोका अस्तित्व अपना स्वयं है, किसीकी दृष्टिने उसकी सृष्टि नहीं की है और न किसीकी वासना या रागसे उनकी उत्पत्ति हुई है । भेद वस्तुओंमें स्वाभाविक है। वह न केवल मनुप्योंको ही, किन्तु संसारके प्रत्येक प्राणीको अपने-अपने प्रत्यक्ष ज्ञानोंमें स्वतः प्रतिभासित होता है । अनन्त प्रकारके विरुद्धधर्माध्यासोंसे सिद्ध देश, काल और आकारकृत भेद पदार्थोंके निजी स्वरूप है। बल्कि चरम अभेद ही कल्पनाका विषय है। उसका पता तब तक नहीं लगता जबतक कोई व्यक्ति उसकी सीमा और परिभाषाको न समझा दे। अभेदमूलक संगठन बनते और बिगड़ते है, जब कि भेद अपनी स्थिरभूमिपर जैसा है, वैसा ही रहता है, न वह बनता है और न वह बिगड़ता है। __ आजके विज्ञानने अपनी प्रयोगशालाओंसे यह सिद्ध कर दिया है कि जगतके प्रत्येक अणु-परमाणु अपना पृथक् अस्तित्व रखते हैं और सामग्रीके अनुसार उनमें अनेकविध परिवर्तन होते रहते हैं। लाख प्रयत्न करने पर भी किसी परमाणुका अस्तित्व नहीं मिटाया जा सकता और न कोई द्रव्य नया उत्पन्न किया जा सकता है। यह सारी जगतकी लीला उन्हीं परमाणुओंके न्यूनाधिक संयोग-वियोगजन्य विचित्र परिणमनोंके कारण हो रही है। ___ यदि एक ही ब्रह्मका जगतमें मूलभूत अस्तित्व हो और अनन्त जीवात्मा कल्पित भेदके कारण ही प्रतिभासित होते हों; तो परस्पर
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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