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ब्रह्मवादमीमांसा
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यद्यपि 'आत्मश्रवण, मनन और ध्यानादि भी भेदरूप होनेके कारण अविद्यात्मक है, फिर भी उनसे विद्याकी प्राप्ति संभव है । जैसे धूलिसे गंदले पानीमें कतकफल या फिटकरीका चूर्ण, जो कि स्वयं भी धूलिरूप ही है, डालने पर एक धूलि दूसरी धूलिको शान्त कर देती है और स्वयं भी शान्त होकर जलको स्वच्छ अवस्थामे पहुॅचा देती है । अथवा जैसे एक विष दूसरे विषको नाशकर निरोग अवस्थाको प्राप्त करा देता है, उसी तरह आत्मश्रवण मनन आदिरूप अविद्या भी राग-द्वेष- मोह आदिरूप मूलअविद्याको नष्ट कर स्वगतभेदके शान्त होनेपर निर्विकल्प स्वरूपावस्था प्राप्त हो जाती है । अतात्त्विक अनादिकालीन अविद्याके उच्छेदके लिए ही मुमुक्षुओंका प्रयत्न होता है । यह अविद्या तत्त्वज्ञानका प्रागभाव है । अतः अनादि होनेपर भी उसकी निवृत्ति उसी तरह हो जाती है जिस प्रकार कि घटदि कार्योकी उत्पत्ति होनेपर उनके प्रागभावों की ।
इस ब्रह्मका ग्राहक सन्मात्रग्राही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है । वह मूक बच्चोंके ज्ञानकी तरह शुद्ध वस्तुजन्य और शब्दसम्पर्कसे शून्य निर्विकल्प होता है ।
'अविद्या ब्रह्मसे भिन्न है या अभिन्न' इत्यादि विचार भी अप्रस्तुत है, क्योंकि ये विचार वस्तुस्पर्शी होते हैं और अविद्या है अवस्तु | किसी भी विचारको सहन नहीं करना ही अविद्याका अविद्यात्व है ।
१. 'यथा पयो पयोऽन्तरं जरयति स्वयं च जीर्यति; यथा विषं विषान्तरं शमयति स्वयं च शाम्यति, यथा वा कनकरजो रजोऽन्तराविले पाथसि प्रक्षिप्तं रजोऽन्तराणि भिन्दत् स्वयमपि भिद्यमानमनाविलं पाथः करोति, एवं कर्म अविद्यात्मकमपि अविद्यान्तराणि अपगमयत् स्वयमप्यपगच्छतीति ।'
- ब्रह्मसू० शां० भा० भा० पृ० ३२ ।
२.
'अविद्याया अविद्यात्वे इदमेव च लक्षणम् । मानाघातासहिष्णुत्वमसाधारणमिष्यते ॥ ' - सम्बन्धवा० का० १८१ ।