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जैनदर्शन
प्रातिभासिक या व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं । जैसे एक अगाध समुद्र वायुके वेगसे अनेक प्रकारकी बोची, तरंग, फेन, बुद्बुद आदि रूपों में प्रतिभासित होता है, उसी तरह एक सत् ब्रह्म अविद्या या मायाकी वजहसे अनेक जड़-चेतन, जीवात्मा-परमात्मा और घट-पट आदि रूपसे प्रतिभासित होता है । यह तो दृष्टि-सृष्टि है । अविद्याके कारण अपनी पृथक् सत्ता अनुभव करनेवाला प्राणी अविद्या में ही बैठकर अपने संस्कार और वासनाओंके अनुसार जगतको अनेक प्रकारके भेद और प्रपञ्चके रूपमें देखता है । एक ही पदार्थ अनेक प्राणियोंको अपनी-अपनी वासना - दूषित दृष्टिके अनुसार विभिन्न रूपोंमें दिखाई देता है । अविद्याके हट जाने पर सत्, चित् और आनन्दरूप ब्रह्म में लय हो जाने पर समस्त प्रपंचोंसे रहित निर्विकल्प ब्रह्म-स्थिति प्राप्त होती है । जिस प्रकार विशुद्ध आकाशको तिमिररोगी अनेक प्रकारकी चित्र-विचित्र रेखाओंसे खचित और चित्रित देखता है, उसी तरह अविद्या या मायाके कारण एक ही ब्रह्म अनेक प्रकारके देश, काल और आकारके भेदोंसे भिन्नकी तरह चित्र-विचित्र प्रतिभासित होता है । जो भी जगतमें था, है और होगा वह सब ब्रह्म ही है ।
यही ब्रह्म समस्त विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयमें उसी तरह कारण होता है, जिस प्रकार मकड़ी अपने जालके लिए, चन्द्रकान्तमणि जलके लिए और वट वृक्ष अपने प्ररोहोंके लिए कारण होता है । जितना भी भेद है, वह सब अतात्त्विक और झूठा है ।
१. 'यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते ॥ तथेदममलं ब्रह्म निर्विकारमविद्यया । कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रपश्यति ॥
- बृहदा० भा० वा० ३।५ । ४३-४४ |
२. 'यथोर्णनाभिः सृजते गृहते च ..... ' - मुण्डकोप० १११७ |