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________________ ब्रह्मवादमीमांसा ४०५ 1 और यदि असमर्थ हैं; तो कार्योत्पत्ति बिलकुल ही नहीं होनी चाहिये । 'सहकारी कारणोंके मिलने पर कार्योत्पत्ति होती है' इसका सीधा अर्थ है कि सहकारी उस कारणको असामर्थ्यको हटाकर सामर्थ्य उत्पन्न करते हैं और इस तरह वह उत्पाद और व्ययका आधार बन जाता है । सर्वथा क्षणिक पदार्थमें देशकृत क्रम न होनेके कारण कार्यकारणभाव और क्रमिक कार्योत्पत्तिका निर्वाह नहीं हो सकता । पूर्वका उत्तरके साथ कोई वास्तविक स्थिर सम्बन्ध न होनेसे कार्यकारणभावमूलक समस्त जगतके व्यवहारोंका उच्छेद हो जायगा । बद्धको ही मोक्ष तो तब हो सकता है जब एक ही अनुस्यूत चित्त प्रथम बँधे और वही छूटे । हिंसकको ही पापका फल भोगनेका अवसर तब आ सकता है, जब हिंसाक्रियासे लेकर फल भोगने तक उसका वास्तविक अस्तित्व और परस्पर सम्बन्ध हो । इन विषयाभासों में ब्रह्मवाद और शब्दाद्वैतवाद नित्य पदार्थका प्रतिनिधित्व करनेवाली उपनिषद्धारासे निकले हैं । सांख्यका एक प्रधान अर्थात् प्रकृतिवाद भी केवल सामान्यवादमें आता है । प्रतिक्षण पदार्थोंका विनाश मानना और परस्पर विशकलित क्षणिक परमाणुओंका पुञ्ज मानना केवल विशेषवादमें सम्मिलित है । तथा सामान्यको स्वतन्त्र पदार्थ और द्रव्य, गुण, कर्म आदि विशेषोंको पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ मानना परस्पर निरपेक्ष उभयवाद में शामिल है । ब्रह्मवादविचार : वेदान्तीका पूर्वपक्ष: वेदान्ती जगतमें केवल एक ब्रह्मको ही सत् मानते । वह कूटस्थ नित्य और अपरिवर्तनशील है । वह सत् रूप है । 'है' यह अस्तित्व ही उस महासत्ता का सबसे प्रबल साधक प्रमाण है । चेतन और अचेतन जितने भी भेद हैं, वे सब इस ब्रह्मके प्रतिभासमात्र हैं । उनकी सत्ता १. 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' - छान्दो० ३|१४|१ |
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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