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जैनदर्शन ___ न्यायसार (पृ० ८ ) में विद्यमानसपक्षवाले चार विरुद्ध तथा अविद्यमानसपक्षवाले चार विरुद्ध इस तरह जिन आठ विरुद्धोंका वर्णन है, वे सब विपक्षमें अविनाभाव पाये जानेके कारण ही विरुद्ध हैं। हेतुका सपक्षमें होना कोई आवश्यक नहीं है। अतः सपक्षसत्त्वके अभावको विरुद्धताका नियामक नहीं मान सकते। किन्तु विपक्षके साथ उसके अविनाभावका निश्चित होना ही विरुद्धताका आधार है ।
दिङ्नाग आचार्यने विरुद्धाव्यभिचारी नामका भी एक हेत्वाभास माना है । परस्परविरोधी दो हेतुओंका एक धर्मीमें प्रयोग होने पर प्रथम हेतु विरुद्धाव्यभिचारी हो जाता है। यह संशयहेतु होनेसे हेत्वाभास है। धर्मकोति ने इसे हेत्वाभास नहीं माना है। वे लिखते हैं कि जिस हेतुका
रूप्य प्रमाणसे प्रसिद्ध है, उसमें विरोधी हेतुका अवसर ही नहीं है । अतः यह आगमाश्रित हेतुके विषयमें ही संभव हो सकता है। शास्त्र अतीन्द्रिय पदार्थोंका प्रतिपादन करता है, अतः उसमें एक ही वस्तु परस्परविरोधी रूपमें वर्णित हो सकती है। ___ अकलंकदेवने इस हेत्वाभासका विरुद्धमें अन्तर्भाव किया है। जो हेतु विरुद्धका अव्यभिचारी-विपक्षमें भी रहने वाला है, वह विरुद्ध हेत्वाभास की ही सीमामें आता है।
(३) अनैकान्तिक-"व्यभिचारी विपक्षेऽपि" (प्रमाणसं० श्लो० ४६) -विपक्षमें भी पाया जानेवाला । यह दो प्रकारका है । एक निश्चितानकान्तिक-'जैसे शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रमेय है, घटकी तरह ।' यहाँ प्रमेयत्व हेतु का विपक्षभूत नित्य आकाशमें पाया जाना निश्चित है । दूसरा सन्दिग्धानकान्तिकर्ज से 'सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है, रथ्यापुरुष१. 'ननु च आचार्येण विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः। स इह नोक्तः, अनुमानविषयेऽसंभवात् ।"-न्यायबि० ३३११२,११३॥