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________________ ३९९ प्रमाणाभासमीमांसा की तरह ।' यहाँ विपक्षभूत सर्वज्ञके साथ वक्तृत्वका कोई विरोध न होनेसे वक्तृत्वहेतु सन्दिग्धानकान्तिक है। न्यायसार ( पृ० १० ) आदिमें इसके जिन पक्षत्रयव्यापक, सपक्षविपक्षकदेशवृत्ति आदि आठ भेदोंका वर्णन है, वे सब इसीमें अन्तर्भूत हैं । अकलंकदेवने इस हेत्वाभासके लिए सन्दिग्ध शब्दका प्रयोग किया है। (४) अकिञ्चित्कर-सिद्ध साध्यमें और प्रत्यक्षादिबाधित साध्यमें प्रयुक्त होनेवाला हेतु अकिञ्चित्कर है। सिद्ध और प्रत्यक्षादि बाधित साध्यके उदाहरण पक्षाभासके प्रकरणमें दिये जा चुके हैं । अन्यथानुपपत्तिसे रहित जितने भी विलक्षण हेतु हैं, वे सब अकिञ्चित्कर है। ___ अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका निर्देश जैनदार्शनिकोंमें सर्वप्रथम अकलंकदेवने किया है, परन्तु उनका अभिप्राय इसे स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेके विषयमें सुदृढ़ नहीं मालूम होता। वे एक जगह लिखते हैं कि सामान्यसे एक असिद्ध हेत्वाभास है। वही विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्धके भेदसे अनेक प्रकारका होता है। ये विरुद्धादि अकिञ्चित्करके विस्तार हैं। फिर लिखते हैं कि अन्यथानुपपत्तिसे रहित जितने विलक्षण हैं, उन्हें अकिञ्चित्कर कहना चाहिये । इससे मालूम होता है कि वे सामान्यसे हेत्वाभासोंकी अकिञ्चित्कर या असिद्ध संज्ञा रखते थे। इसे स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेका उनका प्रबल आग्रह नहीं था। यही कारण है कि आचार्य माणिक्यनन्दिने अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका लक्षण और भेद कर चुकने पर भी लिखा है कि 'इस अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका विचार हेत्वाभासके लक्षणकालमें ही करना चाहिये । शास्त्रार्थके समय तो इसका १. 'सिद्धेऽकिञ्चित्करोऽखिलः ।"-प्रमाणसं० श्लो० ४९। "सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः ।"-परीक्षामुख ६॥३५॥ २. "लक्षण एवासौ दोपः, व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ।" -परीक्षामुख ६३९॥
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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