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________________ जैनदर्शन जैन दार्शनिकोंमें आचार्य सिद्धसेनने ( न्यायावतार श्लो० २३) असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक इन तीन हेत्वाभासोंको गिनाया है। अकलंकदेवने अन्यथानुपपन्नत्वको ही जब हेतुका एकमात्र नियामक रूप माना है तब स्वभावतः इनके मतसे अन्यथानुपपन्नत्वके अभावमें एक ही हेत्वाभास हो सकता है। वे स्वयं लिखते है कि वस्तुतः एक ही असिद्ध हेत्वाभास है । 'अन्यथानुपपत्ति' का अभाव चूंकि कई प्रकारसे होता है, अतः विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध और अकिञ्चित्करके भेदसे चार हेत्वाभास भी हो सकते है । एक जगह तो उन्होंने विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्धको अकिञ्चित्करका विस्तार मात्र बताया है। इनके मतसे हेत्वाभासोंकी संख्याका कोई आग्रह नहीं है, फिर भी उनने जिन चार हेत्वाभासोंका निर्देश किया है, उनके लक्षण इस प्रकार है: (१) असिद्ध-"सर्वथात्ययात्" (प्रमाणसं० श्लो० ४८) सर्वथा पक्षमें न पाया जानेवाला अथवा जिसका साध्यके साथ सर्वथा अविनाभाव न हो । जैसे—'शब्द अनित्य है, चाक्षुष होनेसे ।' असिद्ध दो प्रकारका है। एक अविद्यमानसत्ताक-अर्थात् स्वरूपासिद्ध और दूसरा अविद्यमाननिश्चय-अर्थात् सन्दिग्धासिद्ध । अविद्यमानसत्ताक-जैसे शब्द परिणामी है; क्योंकि वह चाक्षुष है। इस अनुमानमें चाक्षुपत्व हेतु शब्दमें स्वरूपसे ही असिद्ध है। अविद्यमाननिश्चय-मूर्ख व्यक्ति धूम और भाफका विवेक नहीं करके जब बटलोईसे निकलनेवाली भाफको धुआँ मानकर, उसमें अग्निका अनुमान करता है, तो वह सन्दिग्धासिद्ध होता है । अथवा, सांख्य यदि शब्दको परिणामो सिद्ध करनेके लिये कृतकत्व हेतुका १. “अन्यथासंभवाभावभेदात् स बहुधा रमृतः । विरुद्धासिद्धसन्दिग्धैरकिञ्चित्करविस्तरः ॥"-न्यायवि० २।१९५॥ २. "अकिञ्चित्कारकान् सर्वान् तान् वयं संगिरामहे ।" -न्यायवि० २।३७०
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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