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________________ प्रमाणाभासमीमांसा ३९५ तरह' इस अनुमानसे बाधित है । 'परलोकमें धर्म दुःखदायक है, क्योंकि वह पुरुषाश्रित है, जैसे कि अधर्म ।' यहाँ धर्मको दुःखदायक बताना आगमसे बाधित है । 'मनुष्य की खोपड़ी पवित्र है; क्योंकि वह प्राणीका अंग है, जैसे- कि शंख और शुक्ति' । यहाँ मनुष्यको खोपड़ीकी पवित्रता लोकबाधित है । लोकमें गौके शरीरसे उत्पन्न होनेपर भी दूध पवित्र माना जाता है और गोमांस अपवित्र । इसी तरह अनेक प्रकारके लौकिक पवित्रापवित्र व्यवहार चलते हैं । 'मेरी माता बन्ध्या है; क्योंकि उसे पुरुषसंयोग होने पर भी गर्भ नहीं रहता, जैसे- कि प्रसिद्ध बन्ध्या ।' यहाँ मेरी माताका बन्ध्यापन स्ववचनबाधित है । यदि बन्ध्या है, तो तेरी माता कैसे हुई ? ये सब पक्षाभास है । हेत्वाभास : जो हेतुके लक्षणसे रहित है, पर हेतु के समान मालूम होते हैं वे हेत्वाभास है । वस्तुत: इन्हें माधनके दोष होनेसे साधनाभास कहना चाहिये; क्योंकि निर्दुष्ट साधनमें इन दोषोंकी सम्भावना नहीं होती । साधन और हेतुमें वाच्य - वाचकका भेद है । साधनके वचनको हेतु कहते है, अतः उपचारसे साधनके दोषोंको हेतुका दोप मानकर हेत्वाभाम संज्ञा दे दी गई है । नैयायिक हेतुके पाँच रूप मानते है, अतः वे एक-एक रूपके अभाव में असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास स्वीकार करते हैं' । बौद्धों ने हेतुको त्रिरूप माना है, अतः उनके मतसे पक्षधर्मत्व के अभाव मे अमिद्ध, मपक्षसत्त्व के अभाव में विरुद्ध और विपक्षमत्व के अभाव मे अनैकान्तिक इस तरह तीन हेत्वाभास होते है । कणाद -सूत्र ( ३।१।१५ ) में असिद्ध, विरुद्ध और सन्दिग्ध इन तीन हेत्वाभासोंका निर्देश होनेपर भी भाष्य में अनध्यवसित नामके चौथे हेत्वाभासका भी कथन है । १. न्यायसार पृ० ७ । २ न्यायवि० ३।५७/
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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