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________________ प्रमाणफलमीमांसा ३८७ प्रमाणका फल: जैन दर्शनमे जब प्रमाके साधकतमरूपमें ज्ञानको ही प्रमाण माना है, तब यह स्वभावतः फलित होता है कि उस ज्ञानसे होने वाला परिणमन ही फलका स्थान पावे । ज्ञान दो कार्य करता है-अज्ञानको निवृत्ति और स्व-परका व्यवसाय । ज्ञानका आध्यात्मिक फल मोक्षकी प्राप्ति है; जो तार्किक क्षेत्रमे विवक्षित नहीं है। वह तो अध्यात्मज्ञानका ही परम्परा फल है । प्रमाणसे साक्षात् अज्ञानको निवृत्ति होती है। जैसे प्रकाश अन्धकारको हटाकर पदार्थोको प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान अज्ञानको हटाकर पदार्थोंका बोध कराता है । अज्ञानकी निवृत्ति और पदार्थोंका ज्ञान ये दो पृथक् चीजें नहीं है और न इनमे काल-भेद ही है, ये तो एक ही सिक्केके दो पहल है। पदार्थबोधके बाद होनेवाला हान हेयका त्याग, उपादान और उपेक्षाबुद्धि प्रमाणके परम्परा फल है। मति आदि ज्ञानोंमें हान, उपादान और उपेक्षा तीनों बुद्धियां फल होती है , पर केवलज्ञान का फल केवल उपेक्षाबुद्धि ही है। राग और द्वेषमे चित्तका प्रणिधान नहीं होना, उपेक्षा कहलाती है। चूंकि केवलज्ञानी वीतरागी है, अतः उनके रागद्वेषमूलक हान और उपादान बुद्धि नहीं हो सकती। जैन परम्परामे ज्ञान आत्माका अभिन्न गुण है । इसो ज्ञानको पूर्व अवस्था प्रमाण कहलाती है और उत्तर अवस्था फल । जो ज्ञानधारा अनेक ज्ञानक्षणोंमे व्याप्त रहती है, उस ज्ञानधाराका पूर्वक्षण साधकतम होनेसे प्रमाण होता है और उत्तरक्षण साध्य होनेसे फल । 'अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा और हानादिबुद्धि' इस धारामे अवग्रह केवल प्रमाण ही है और हानादिबुद्धि केवल फल ही, परन्तु ईहासे धारणा पर्यन्त ज्ञान पूर्वकी अपेक्षा फल होकर भी अपने उत्तरकार्यको अपेक्षा प्रमाण भी हो जाते है। एक १. 'उपेक्षा फलमाथस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्वा वाऽशाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥'-आप्तमी० श्लो० १०२ २. 'पूर्वपूर्वप्रमाणत्वे फलं स्यादुत्तरोत्तरम् ।'-लघी० श्लो० ७
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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