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जैनदर्शन सीधी-टेढ़ी रेखाओंका अस्तित्व स्वीकार करते हैं वे रेखाएं पदार्थाकारताका प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, किन्तु वे परिपक्व अनुभवके संस्कारोंको प्रतिनिधि हैं । यही कारण है कि यथाकाल उन संस्कारोंके उद्बोध होने पर स्मृति आदि उत्पन्न होते हैं । अतः अन्तरंग और साधकतम दृष्टि से इन्द्रिय और मन ही ज्ञानके कारणों में गिनाये जानेके योग्य हैं, अर्थादि नहीं । आलोक भी ज्ञानका कारण नहीं : ____ इसी तरह आलोक ज्ञानका विषय तो होता है, कारण नहीं । जो जिस ज्ञानका विषय होता है वह उस ज्ञानका कारण नहीं होता, जैसे कि अन्धकार । आलोकका ज्ञानके साथ अन्वय और व्यतिरेक भी नहीं है । आलोकके अभावमें अन्धकारका ज्ञान होता है। रात्रिचर उल्लू आदिको आलोकके अभावमें ही ज्ञान होता है, सद्भावमें नहीं। रात्रिमें अन्धकार तो दिखता है, पर उससे आवृत अन्य पदार्थ नहीं। अन्धकारको ज्ञानका आवरण भी नहीं मान सकते; क्योंकि वह ज्ञानका विषय होता है। ज्ञानका आवरण तो ज्ञानावरण कर्म ही हो सकता है। इसीके क्षयोपशम की तरतमतासे ज्ञानके विकासमें तारतम्य होता है। यह एक साधारण नियम है कि जो जिस ज्ञानका विषय होता है वह उस ज्ञानका कारण नहीं होता, जैसे कि अन्धकार । अतः आलोकके साथ ज्ञानका अन्वय और व्यतिरेक न होनेसे आलोक भी ज्ञानका कारण नहीं हो सकता।
विषयकी दृष्टिसे ज्ञानोंका विभाजन और नामकरण भी नहीं किया जाता। ज्ञानोंका विभाजन और नामकरण तो इन्द्रिय और मन रूप कारणोंसे उत्पन्न होनेकी वजहसे चाक्षुष, रासन, स्पार्शन, घ्राणज, श्रोत्रज
और मनोजन्य-मानसके रूपमें मानना ही उचित और युक्तिसंगत है। पदार्थोंकी दृष्टि से ज्ञानका विभाजन और नामकरण न संभव है और न शक्य ही । इसलिए भी अर्थ आदिको ज्ञानमें कारण मानना उचित नहीं जंचता।
१. देखो, लघी० श्लो० ५६ ।