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ज्ञानके कारणोंकी मीमांसा ३८५ यदि पदार्थसे उत्पन्न होनेके कारण ज्ञानमें विषयप्रतिनियम हो; तो घटज्ञानको घटकी तरह कारणभूत इन्द्रिय आदिको भी विषय करना चाहिए । तदकारतासे विषयप्रतिनियम मानने पर एक घटका ज्ञान होनेसे उस आकारवाले यावत् घटोंका परिज्ञान हो जाना चाहिए । यदि तदुत्पत्ति और तदाकारता मिलकर नियामक है, तो द्वितीय घटज्ञानको प्रथम घटज्ञानका नियामक होना चाहिये; क्योंकि प्रथम घटज्ञानसे वह उत्पन्न हुआ है और जैसा प्रथम घटज्ञानका आकार है वैसा ही आकार उममें होता है। तदध्यवसायसे भी वस्तुका प्रतिनियम नहीं होता; क्योंकि शुक्ल शंखमें होनेवाले पीताकार ज्ञानसे उत्पन्न द्वितीय ज्ञानमें अनुकूल अध्यवसाय तो देखा जाता है पर नियामकता नहीं है।
अतः अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न ज्ञान और अर्थमें दीपक और घटके प्रकाश्य-प्रकाशकभावकी तरह ज्ञेय-ज्ञायकभाव मानना ही उचित है। जैसे देवदत्त और काठ अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न होकर भी छेदन क्रियाके कर्ता और कर्म बन जाते है उसी तरह अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न ज्ञेय और ज्ञानमें भी ज्ञाप्य-ज्ञापक भाव हो जाता है। जिस प्रकार खदानसे निकली हुई मलिन मणि अनेक शाण आदि कारणोंसे न्यूनाधिकरूपमें निर्मल और स्वच्ल होती है उसी तरह कर्मयुक्त मलिन आत्माका ज्ञान भी अपनी विशुद्धिके अनुसार तरतमरूपसे प्रकाशमान होता है और अपनी क्षयोपशमरूप योग्यताके अनुसार पदार्थों को जानता है । अतः अर्थको ज्ञानमें साधकतम कारण नहीं माना जा सकता। पदार्थ तो जगतमें विद्यमान है ही, जो सामने आयगा उसे मात्र इन्द्रिय और मन के व्यापारसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान जानेगा ही।
आधुनिक विज्ञान मस्तिष्कमें प्रत्येक विचारको प्रतिनिधिभत जिन
१. 'स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा । तथा शानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वतः ॥'-लवी० स्व० श्लो० ५९ ।