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जैनदर्शन
नहीं होता। यदि मिथ्याज्ञानमें इन्द्रियोंकी दुष्टता हेतु है तो सम्यग्ज्ञानमें इन्द्रियोंकी निर्दोषताको ही कारण होना चाहिये ।
'अन्य कारणोंसे उत्पन्न बुद्धिके द्वारा सन्निकर्षका निश्चय होता है । सन्निकर्षमें प्रविष्ट अर्थके साथ ज्ञानका कार्यकारणभाव तब निश्चित हो सकेगा, जब सन्निकर्ष, आत्मा, मन और इन्द्रिय आदि किसी एक ज्ञानके विषय हों। परन्तु आत्मा, मन और इन्द्रियाँ तो अतीन्द्रिय है। अतः पदार्थके साथ होनेवाला इनका सन्निकर्ष भी स्वभावतः अतीन्द्रिय ही होगा । और इस तरह जब वह विद्यमान रहते हुए भी अप्रत्यक्ष है, तब उसकी ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारणता कैसे मानी जाय ?
ज्ञान अर्थको तो जानता है, पर अर्थमें रहनेवाली ज्ञानकारणताको नहीं जानता । जब ज्ञान अतीत और अनागत पदार्थोंको, जो कि ज्ञानकालमें अविद्यमान है, जानता है तब अर्थको ज्ञानके प्रति कारणता अपने आप निस्सार सिद्ध हो जाती है। कामलादिरोगवालेको सफेद शंखमें अविद्यमान पीलेपनका ज्ञान होता है और मरणोन्मुख व्यक्तिको पदार्थके रहने पर भी उसका ज्ञान नहीं होता या विपरीत ज्ञान होता है।
क्षणिक पदार्थ तो ज्ञानके प्रति कारण भी नहीं हो सकते; क्योंकि जब वह क्षणिक होनेसे कार्यकाल तक नहीं पहुँचता तब उसे कारण कैसे कहा जाय ? अर्थके होनेपर भी उसके कालमे ज्ञान उत्पन्न नहीं होता तथा अर्थक अभावमे ही ज्ञान उत्पन्न होता है, तब ज्ञान अर्थका कार्य कैसे माना जा सकता है ? कार्य और कारण समानकालमें तो नहीं रह सकते। ___ज्ञान अमूर्त है, अतः वह मूर्त अर्थके प्रतिबिम्बको भी धारण नहीं कर सकता । मूर्त दर्पण आदिमे ही मूर्त मुख आदिका प्रतिबिम्ब आता है, अमूर्तमें मूर्तका नहीं। १. लघी० स्व० श्लो० ५५ । २. लघी० स्व० श्लो० ५८ ।