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ज्ञानके कारणोंकी मीमांसा ३८३ ग्राह्य कैसे हो सकता है ?' इस प्रश्नका समाधान तदाकारतासे किया गया है अर्थात् पदार्थ अगले क्षणमें भले ही नष्ट हो जाय, परन्तु वह अपना आकार ज्ञानमें दे जाता है, इसीलिए ज्ञान उस अर्थको जानता है। अर्थ कारण नहीं:
जैन दार्शनिकोंमें सर्वप्रथम अकलंकदेवने उक्त विचारोंकी आलोचना करते हुए ज्ञानके प्रति मन और इन्द्रियको कारणताका सिद्धान्त स्थिर किया है। जो कि परम्परागत जैनमान्यता का दिग्दर्शन मात्र है। वे अर्थ
और आलोककी कारणताका अपनी अन्तरङ्ग सूक्ष्म दृष्टिसे निरास करते हैं कि ज्ञान अर्थका कार्य नहीं हो सकता; क्योंकि ज्ञान तो मात्र इतना ही जानता है कि 'यह अमुक अर्थ है।' वह यह नहीं जानता कि 'मैं इस अर्थसे उत्पन्न हुआ हूँ।' यदि ज्ञान स्वयं यह जानता होता तो विवादको गुञ्जाइश ही नहीं थी। इन्द्रियादिसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अर्थक परिच्छेदमें व्यापार करता है और अपने उत्पादक इन्द्रियादि कारणोंकी सूचना भी करता है। ज्ञानका अर्थके साथ जब निश्चित अन्वय और व्यतिरेक नहीं है, तब उसके साथ ज्ञानका कार्यकारणभाव स्थिर नहीं किया जा सकता। संशय और विपर्यय ज्ञान अपने विषयभूत पदार्थोंके अभावमें भी इन्द्रियदोष आदिसे उत्पन्न होते हैं। पदार्थोंके बने रहने पर भी इन्द्रिय और मनका व्यापार न होनेपर सुषुप्त मूच्छित आदि अवस्थाओंमें ज्ञान
१. 'भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः।
हेतुत्वमेव युक्तिशा शानाकारार्पणक्षमम् ॥' -प्रमाणवा० २।२४७ । २. 'ततः सुभाषितम्-इन्द्रियमनसी कारणं विज्ञानस्य अथों विषयः ।'
-लघी० स्व० श्लो० ५४ । ३. 'तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।' -त० स० १।१४ । ४. लघी० श्लो० ५३ ।