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________________ ३८२ जैनदर्शन उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको मालिकी इन्द्रियाँ ही करती हैं यानी चाक्षुषज्ञान, श्रावणज्ञान आदि व्यवहार इन्द्रियोंके स्वामित्वके कारण ही इन्द्रियोंसे होते हैं । जिस पदार्थका ज्ञान होता है वह पदार्थ आलम्बन प्रत्यय होता है । अन्य प्रकाश आदि कारण सहकारी प्रत्यय कहे जाते हैं । सौत्रान्तिक बौद्धों का यह सिद्धान्त' है कि जो ज्ञानका कारण नहीं होता वह ज्ञानका विषय नहीं हो सकता । नैयायिक आदि इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे ज्ञानकी उत्पत्ति स्वीकार करते हैं । अतः इनके मत से भी सन्निकर्षके घटक रूपमें पदार्थ ज्ञानका कारण हो जाता है । बौद्ध-मत में सभी पदार्थ क्षणिक हैं । जब उनसे पूछा गया कि 'ज्ञान पदार्थ और इन्द्रियोंसे उत्पन्न होकर भी केवल पदार्थको ही क्यों जानता है, इन्द्रियोंको क्यों नहीं जानता ?' तब उन्होंने अर्थजन्यताके साथ-हीसाथ ज्ञानमें श्रर्थाकारताको भी स्थान दिया यानी जो ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है और जिसके आकार होता है वह उसीको जानता है । 'द्वितीयज्ञान प्रथमज्ञानसे उत्पन्न भी होता है, उसके आकार भी रहता है अर्थात् जो आकार प्रथमज्ञानमें है वही आकार द्वितीयज्ञानमें भी होता है, फिर द्वितीयज्ञान प्रथमज्ञानको क्यों नहीं जानता ?' इस प्रश्नके समाधानके लिये उन्हें तदध्यवसाय भी मानना पड़ा श्रर्थात् जो ज्ञान जिससे उत्पन्न हो, जिसके आकार हो और जिसका अध्यवसाय ( अनुकूल विकल्पको उत्पन्न करना ) करे, वह उस पदार्थको जानता है । चूँकि नीलज्ञान 'नीलमिदम्' ऐसे विकल्पको उत्पन्न करता है, 'पूर्वज्ञानमिदम्' इस विकल्पको नहीं, अतः वह नीलको ही जानता है, पूर्वज्ञानको नहीं । इस तरह उन्होंने तदुत्पत्ति, ताद्रूप्य और तदध्यवसायको ज्ञानका विषयनियामक स्वीकार किया है । 'प्रथमक्षणवर्ती पदार्थ जब ज्ञानको उत्पन्न करके नष्ट हो जाता है, तब वह १. 'नाकरणं विषयः ।' –उद्धृत बोधिचर्या० पृ० ३९८ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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