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ज्ञानके कारणोंकी मीमांसा वे ज्ञानकी शक्तिको उपयोगमे ला ही दें। पदार्थ और प्रकाश आदिके रहने पर भी सुषुप्त और मूच्छित आदि अवस्थाओमे ज्ञानकी शक्तिका बाह्य व्यापार नही होता । यदि इन्द्रिय और मनकी तरह अर्थ और आलोक आदिको भी ज्ञानका कारण स्वीकार कर लिया जाय, तो सुषुप्त अवस्था और ध्यानका होना असम्भव हो जाता है, क्योकि पदार्थ और प्रकाशका सान्निध्य जगतमे बना ही हुआ है। विग्रहगति ( एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको धारण करनेके लिए की जानेवाली मरणोत्तर गति) मे इन्द्रिय और मनकी पूर्णता न होनेसे पदार्थ और प्रकाश आदिका सन्निधान होने पर भी ज्ञानको उपयोग अवस्था नहीं होती। अत ज्ञानका अन्वय और व्यतिरेक यदि मिलता है तो इन्द्रिय और मनके साथ हो, अर्थ और आलोकके साथ नही । जिस प्रकार तेल, बत्ती, अग्नि आदि अपने कारणोसे उत्पन्न होनेवाला प्रकाश मिट्टी, कुम्हार आदि अपने कारणोसे उत्पन्न हुए घडेको प्रकाशित करता है, उसी तरह कर्मक्षयोपशम और इन्द्रियादि कारणोसे उपयोग अवस्थामे आया हुआ ज्ञान अपने-अपने कारणोसे उत्पन्न होनेवाले जगतके पदार्थोको जानता है । जैसे दीपक न तो घटसे उत्पन्न हुआ है और न घटके आकार ही है, फिर भी वह घटका प्रकाशक है, उसी तरह ज्ञान घटादि पदार्थोसे उत्पन्न न होकर और उनके आकार न होकर भी उन पदार्थोको जाननेवाला होता है। बौद्धोंके चार प्रत्यय और तदुत्पत्ति आदि :
बौद्ध चित्त और चैत्तोकी उत्पत्तिमे चार प्रत्यय मानते है(१) समनन्तर प्रत्यय, (२) अधिपति प्रत्यय, (३) आलम्बन प्रत्यय और (४)सहकारी प्रत्यय । प्रत्येक ज्ञानकी उत्पत्तिमै अनन्तर पूर्वज्ञान समनन्तर प्रत्यय होता है, अर्थात् पूर्व ज्ञानक्षण उत्तर ज्ञानक्षणको उत्पन्न करता है। चक्षु आदि इन्द्रियाँ अधिपति प्रत्यय होती है, क्योकि अनेक कारणोसे १. 'चत्वारः प्रत्यया हेतुश्चालम्बनमनन्तरम् । तथैवाधिपतेयं च प्रत्ययो नास्ति पञ्चमः ॥' -माध्यमिककारिका १२२ ।