________________
३८०
जैनदर्शन इस खरी कसोटीपर जो वाक्य अपनी यथार्थता और सत्यार्थताको साबित कर सकें वे प्रमाणसिद्ध है और शेष अप्रमाण । यही बात आप्तके सम्बन्धमें है । 'यो यत्रावश्चकः स तत्र आप्तः' अर्थात् जो जिस अंशमें अवंचक-अविसंवादी है वह उस अंशमें आप्त है। इस सामान्य सूत्रके अनुसार लोकव्यवहार और आगमिक परंपरा दोनोंमें आप्तका निर्णय किया जा सकता है और आगम-प्रमाण की सीमा लोक और शास्त्र दोनों तक विस्तृत की जा सकती है । यही जैन परम्पराने किया भी है। शानके कारण : अर्थ और आलोक ज्ञानके कारण नहीं : ___ ज्ञानके कारणोंका विचार करते समय जनतार्किकोंकी यह दृष्टि रही है कि ज्ञानकी कारणसामग्रोमें ज्ञानकी शक्तिको उपयोगमें लानेके लिए या उसे लब्धि अवस्थासे व्यापार करनेकी ओर प्रवृत्त करनेमें जो अनिवार्य साधकतम हों उन्हींको शामिल करना चाहिये । इसीलिए ज्ञानके व्यापारमें अन्तरंग कारण उसकी शक्ति अर्थात् क्षयोपशमविशेषरूप योग्यता ही मानी गई है। इसके बिना ज्ञानको प्रकटता नहीं हो सकती, वह उपयोगरूप नहीं बन सकता। बाह्य कारण इन्द्रिय और मन है, जिनके होने पर ज्ञानकी योग्यता पदार्थोके जाननेका व्यापार करती है । भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के व्यापारसे ज्ञानको शक्ति उन-उन इन्द्रियोंके विषयोंको जानती है। इन्द्रियव्यापारके समय मनके व्यापारका होना नितान्त आवश्यक है। इसीलिए इन्द्रियप्रत्यक्षमें इन्द्रियोंको मुख्यता होनेपर भी मनको बलाधायक-बल देनेवाला स्वीकार किया गया है। मानसप्रत्यक्ष या मानसज्ञानमें केवल मनोव्यापार ही कार्य करता है । इन्द्रिय और मनका व्यापार होने पर जो भी पदार्थ सामने होगा उसका ज्ञान हो ही जायगा। इन्द्रिय और मनके व्यापार नियमसे ज्ञानकी शक्तिको उपयोगमें ला ही देते है, जबकि अर्थ और आलोक आदि कारणोंमें यह सामर्थ्य नहीं है कि