________________
૨૮૮
जैनदर्शन ही आत्माका ज्ञानव्यापार जब ज्ञेयोन्मुख होता है तब वह प्रमाण कहा जाता है और जब उसके द्वारा अज्ञाननिवृत्ति या अर्थप्रकाश होता है तब वह फल कहलाता है।
'नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य आदि इन्द्रियको प्रमाण मानकर इन्द्रियव्यापार, सन्निकर्ष, आलोचनाज्ञान, विशेषणज्ञान, विशेष्यज्ञान, हान, उपादान आदि बुद्धि तककी धारामें इन्द्रियको प्रमाण ही मानते हैं और हानोपादान आदि बुद्धिको फल ही। बीचके इन्द्रियव्यापार और सन्निकर्ष आदिको पूर्व पूर्वकी अपेक्षा फल और उत्तर उत्तरकी अपेक्षा प्रमाण स्वीकार करते है। प्रश्न इतना ही है कि जब प्रमाणका कार्य अज्ञानकी निवृत्ति करना है तब उस कार्यके लिए इन्द्रिय, इन्द्रियव्यापार और सन्निकर्ष, जो कि अचेतन है, कैसे उपयुक्त हो सकते है। चेतन प्रमामें साधकतम तो ज्ञान ही हो सकता है, अज्ञान नहीं। अतः सविकल्पक ज्ञानसे ही प्रमाणव्यवहार प्रारम्भ होना चाहिये, न कि इन्द्रि यसे। अन्धकारनिवृत्तिके लिए अन्धकारविरोधी प्रकाश ही ढूँढ़ा जाता है न कि तदविरोधी घट, पट आदि पदार्थ । इन्हीं परम्पराओंकी उपनिषदोंमें यद्यपि तत्त्वज्ञानका चरम फल निःश्रेयस भी बताया गया है, परन्तु तर्कयुगमें उसको प्रमुखता नहीं रही।
बौद्ध परम्पराकी सौत्रान्तिक शाखामें बाह्य अर्थका अस्तित्व स्वीकार किया गया है, इसलिए वे ज्ञानगत अर्थाकारता या सारूप्यको प्रमाण मानते हैं और विषयके अधिगमको प्रमाणका फल । ये सारूप्य और अधिगम दोनों ज्ञानके ही धर्म है। एक ही ज्ञान जिस क्षणमें व्यवस्थापनहेतु होनेसे प्रमाण कहलाता है वही उसी क्षणमें व्यवस्थाप्य होनेसे फल नाम १. देखो, न्यायभा० १११।३। प्रश० कन्दली पृ० १९८-९९ ।
मी० श्लो० प्रत्यक्ष० श्लो० ५९-७३ । सांख्यतत्त्वकौ० श्लो० ४ । २ "विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते ।
स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥"-तत्त्वसं० का० १३४४ ।