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प्राकृतशब्दोंकी साधुता
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ही मानना चाहिये। शब्दोंमें सत्यासत्य व्यवस्था भी अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिके निमित्तसे ही स्वीकार की जाती है। जो शब्द अर्थव्यभिचारी हैं वे खुशोसे शब्दाभास सिद्ध हों, पर इतने मात्रसे सभी शब्दोंका सम्बन्ध अर्थसे नहीं तोड़ा जा सकता और न उन्हें अप्रमाण ही कहा जा सकता है । यह ठीक है कि शब्दको प्रवृत्ति बुद्धिगत संकेतके अनुसार होती है। जिस अर्थमें जिस शब्दका जिस रूपसे संकेत किया जाता है, वह शब्द उस अर्थका उस रूपसे वाचक है और वह अर्थ वाच्य । यदि वस्तु सर्वथा अवाच्य है; तो वह 'वस्तु' 'अवाच्य' आदि शब्दोंके द्वारा भी नहीं कही जा सकेगी और इस तरह जगतसे समस्त शब्दव्यवहारका उच्छेद ही हो जायगा। हम सभी शब्दोंको अर्थाविनाभावी नहीं कहते, किन्तु 'जिनके वक्ता आप्त हैं वे शब्द कभी भी अर्थके व्यभिचारी नहीं हो सकते' हमारा इतना ही अभिप्राय है। प्राकृतअपभ्रंश शब्दोंकी अर्थवाचकता (पूर्वपक्ष):
इस तरह 'शब्द अर्थके वाचक है' यह सामान्यतः सिद्ध होनेपर भी मीमांसक और वैयाकरणोंका यह आग्रह है कि सभी शब्दोंमें वाचकशक्ति नहीं है, किन्तु संस्कृत शब्द ही साधु है और उन्हींमें वाचकशक्ति है। प्राकृत, अपभ्रंश आदि शब्द असाधु हैं, उनमें अर्थप्रतिपादनकी शक्ति नहीं है। जहां-कहीं प्राकृत या अपभ्रंश शब्दोंके द्वारा अर्थप्रतीति देखी जाती है, वहां वह शक्तिभ्रमसे ही होती है, या उन प्राकृतादि असाधु शब्दोंको
१. "गवादय एव साधवो न गाव्यादयः इति साधुत्वरूपनियमः ।"
-शास्त्रदो० १।३।२७ । २. 'न चापभ्रंशानामवाचकतया कथमर्थावबोध इति वाच्यम् , शक्तिभ्रमवतां बाधकाभावात् । विशेषदर्शिनस्तु द्विविधाः-तत्तद्वाचकसंस्कृतविशेषज्ञानवन्तः तद्विकलाश्च । तत्र आद्यानां साधुस्मरणद्वारा अर्थबोध: ।'-शब्दकौ० पृ० ३२ ।