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________________ ३७२ जैनदर्शन है ? चूंकि प्रतिनियत शब्दोंसे प्रतिनियत अर्थों में प्राणियोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है, इसलिए शाब्दप्रत्ययोंका विषय परमार्थ वस्तु ही मानना चाहिये । रह जाती है संकेतकी बात; सो सामान्यविशेषात्मक पदार्थमें संकेत किया जा सकता है। ऐसा अर्थ वास्तविक है, और संकेत तथा व्यवहारकाल तक द्रव्यदृष्टिसे रहता भी है। समस्त व्यक्तियाँ समानपर्यायरूप सामान्यकी अपेक्षा तर्कप्रमाणके द्वारा उसी प्रकार संकेतके विषय भी बन जायेंगी, जिस प्रकार कि अग्नि और धूमकी व्याप्तिके ग्रहण करनेके समय अग्नित्वेन समस्त अग्नियाँ और धूमत्वेन समस्त धूम व्याप्तिके विषय हो जाते हैं। यह आशंका भी उचित नहीं है कि 'शब्दके द्वारा यदि अर्थका बोध हो जाता है, तो चक्षुरादि इन्द्रियोंकी कल्पना व्यर्थ है'; क्योंकि शब्दसे अर्थको अस्पष्ट रूपमें प्रतीति होती है। अतः उसकी स्पष्ट प्रतीतिके लिए अन्य इन्द्रियोंकी सार्थकता है। यह दूषण भी ठीक नहीं है कि 'जैसे अग्निके छूनेसे फोला पड़ता है और दुःख होता है, उसी तरह दाह शब्दके सुननेसे भी होना चाहिये'; क्योंकि फौला पड़ना या दुःख होना अग्निज्ञानका कार्य नहीं है; किन्तु अग्नि और देहके सम्बन्धका कार्य है। सुषुप्त या मूच्छित अवस्थामें ज्ञानके न होनेपर भी अग्निपर हाथ पड़ जानेसे फौला पड़ जाता है और दूरसे चक्षु इन्द्रियके द्वारा अग्निको देखने पर भी फोला नहीं पड़ता है। अतः सामग्रीभेदसे एक ही पदार्थमें स्पष्ट-अस्पष्ट आदि नाना प्रतिभास होते हैं । __यदि शब्दका वाच्य वस्तु न हो, तो शब्दोंमें सत्यत्व और असत्यत्व व्यवस्था नहीं की जा सकती। ऐसी दशामें 'सर्वं क्षणिकं सत्त्वात्' इत्यादि आपके वाक्य भी उसी तरह मिथ्या होंगे जिस प्रकार कि 'सर्व नित्यम्' इत्यादि विरोधी वाक्य । समस्त शब्दोंको विवक्षाका सूचक मानने पर भी यही दूषण अनिवार्य है। यदि शब्दसे मात्र विवक्षाका ज्ञान होता है तो उससे बाह्य अर्थकी प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति और प्राप्ति होनी चाहिये। अतः व्यवहारसिद्धिके लिये शब्दका वाच्य वस्तुभूत सामान्यविशेषात्मक पदार्थ
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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